नवरात्रि
स्पेशल – नवसंवत्सर- विक्रमसंवत और वासंतिक नवरात्र
जब
कड़ाके की ठंड समाप्त होने लगती है तब कुछ गुलाबी सर्दियों के साथ ही आता है बसंत
और ले आता है नैसर्गिक सुंदरता, साथ ही त्योहारों की भरमार । हवाएँ रूमानी हो जाती हैं, चारों ओर रंग, सुगंध, महुए की गंध, दहकते टेसू, महकते गुलाब, अधपकी गेहूं की बालियाँ, आमों पर बौर और कोयल की कूक, अहा! मन को फागुन आने की आहट देने
लगते है । फागुन की पूर्णिमा को होली की धधकन से वातावरण गरम हो जाता और अगले दिन
रंगों की परेवा के साथ ही आरंभ होता है चैत्र! यानि नया मास! फिर शुक्ल पक्ष की
प्रतिपदा से नवसंवत्सर , नवरात्रि का आरंभ होता है ।
कहते
है इसी तिथि से पितामह ब्रम्हा ने सृष्टि निर्माण प्रारम्भ किया था । इसलिए इस
तिथि को पवित्र तिथि माना जाता है । युगों में प्रमुख सतयुग का प्रारम्भ भी इसी
तिथि को हुआ था । इस तिथि का एक ऐतिहासिक महत्तव भी है इसी दिन सम्राट चन्द्रगुप्त
विक्रमादित्य ने शकों पर विजय प्राप्त की थी और उसे चिर स्थायी बनाने के लिए
विक्रम संवत का प्रारम्भ भी किया था। और समस्त प्रजा ने नए वस्त्र धारण कर, घरों को ध्वज पताकाओं, वंदनवार इत्यादि से सजाया था। तब
से यह हिंदुओं में नव संवत्सर-विक्रमीसंवत के नाम से मनाया जाने लगा ।
चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ मास की शुक्लपक्ष
की प्रतिपदा से नवमी तक के नौ दिन नवरात्र कहलाते हैं । इस प्रकार एक संवत्सर में
चार नवरात्र होते है, इनमें चैत्र का
नवरात्र “बासन्तिक नवरात्र” तथा आश्विन का नवरात्र “शारदीराय नवरात्र” कहलाता है ।
इन नौ दिनों में माँ भगवती के नौ रूप की विशेष आराधना होती है ।
प्रथम
शैलपुत्री:-
अर्थात पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण इनको शैलपुत्री, हेमावती , पार्वती इत्यादि नामों से जाना
जाता है और प्रथम रूप में इनको ही पूजा जाता है।
द्वितीय ब्रम्हचारिणी:- अर्थात तपचारिणी; इस पर एक कथा प्रचिलित है, नारद मुनि के द्वारा भविष्यवाणी
की गयी कि पार्वती का विवाह भगवान भोलेनाथ से ही होगा किन्तु हिमवान ने विष्णु जी को
अपने दामाद रूप में पाने की अभिलाषा नारद जी के सम्मुख रखी । ऐसा सुनकर पार्वती जी
घनघोर तपस्या हेतु वन में चली गयी । तब से उनका एक नाम तपश्चरिणी या ब्रम्हचारिणी
पड़ा ।
तृतीय चंद्रघंटा:- ऐसा रूप जिनके सर पर
अर्धचंद्र, तीन नेत्र और आठ भुजाएँ जिनमे
शस्त्र है, घोर गर्जना करता हुआ सिंह जिस पर
वे विराजमान है तथा तीव्र घंटे की ध्वनि है। यह हिम्मत वाली छवि है । इस देवी की
आराधना करने वाले स्त्री पुरुषों में वीरता, निर्भयता, सौम्यता और विनम्रता का विकास
होता है।
चतुर्थ कूष्माण्डा:- अपनी मंद हँसी के द्वारा
ब्रम्हाण्ड को उत्पन्न करने के इनको कूष्माण्डा कहा गया। इसीलिए इनको सृष्टि
स्वरूपा भी कहा जाता है । कहते है इनको कुम्हड़े की बलि प्रिय है ।
पंचम स्कन्दमाता:- पुत्र कार्तिकेय का एक नाम स्कन्द
भी है और ये पुत्र स्कन्द को गोद में लिए हुये है अतः ये स्कन्दमाता के रूप में भी
विख्यात है । इनकी पूजा से मोक्ष का मार्ग सुगम होता है । यह देवी विद्वानों और
सेवकों को पैदा करने वाली मानी जाती है।
षष्टम कात्यायनी:- छठवें दिन पूजी जाने वाली माता
कात्यायनी,विश्व प्रसिद्ध महर्षि कात्यायन की
घोर तपस्या से प्रसन्न होकर उनके घर पुत्री रूप में जन्मी इसकारण इनको देवी
कात्यायनी जाना गया ।
सप्तम कालरात्रि:- नाम के अनुसार जो घने काले
अंधकार के समान काले रंग के शरीर वाली जो भयानक रूप वाली भी हैं ये भयानक या आसुरी
शक्तियों का विनाश करने वाली शक्ति है । ये काल से भी रक्षा करती हैं । इनकी साधना
करने से मनुष्य सब प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है ।
अष्टम
महागौरी:-
महागौरी अर्थात महान गौर वर्ण वाली, शिव को पति रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या करने के कारण इनका शरीर काला पड़
गया था जिसे शिव जी ने बाद में पवित्र गंगाजल से धो कर कांतिमय बना दिया था उनका
रूप अत्यंत गौर वर्ण का हो गया था अतः वे महागौरी कहलाईं ।
नवम
सिद्धि दात्री:- इस रूप की पूजा नौवें दिन की जाती है । ये सब प्रकार की सिद्धियों को प्रदान
करने वाली होती हैं । अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्रकाम्य, ईशत्व और वशित्व ये आठ सिद्धियाँ
होती हैं । माता के सिद्धि दात्री रूप की आराधना करने से ये सभी सिद्धियाँ प्राप्त
की जा सकती हैं।
नवरात्र
में इन नौ रूपों की स्थापना व अराधना होती है । घट स्थापन के साथ माँ का आगमन
प्रत्येक घर में हो जाता है । मनुष्य अपने-अपने भावों के कुसुम माता के श्री
च्ररणों में अर्पित करता है और भावानुसार फल प्राप्त करता है ।
माँ
सभी के मनोभावों को पूर्ण करें । इसी के साथ आप सबको नवरात्रि एवं नव संवत्सर की
शुभकामनायें ।
प्रेषिका
अन्नपूर्णा बाजपेयी ‘अंजू’
वरिष्ठ साहित्यकार
कानपुर ।
सुन्दर आलेख।
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