स्त्रीविमर्श या स्त्रीवादी विचार क्या है? उसका समग्र रूप क्या है ? प्रश्न यह उठता है कि क्या स्त्री विमर्श के माध्यम से आप और हम जिस स्त्री पर चर्चा करना चाहते हैं उसे हृदय की उतनी गहराई से जानते हैं? उसकी जिन समस्याओं पर विचार कर समाधान बतलाए जा रहे है क्या उनपर सच में काम हो रहा है ? क्या सच में उनकी समस्याओं का निराकरण हो रहा है? जब तक ऐसे प्रश्न नहीं उठाए जाएंगे तब तक अनुशीलन संभव नहीं होगा । आज पाश्चात्य एवं भारतीय विचारकों के विचार में स्त्री विमर्श केवल नारी की स्वतन्त्रता पर आकार टिक गया है और विद्रोही स्वर मुखरित होने लगे है । आज की नारी स्वच्छंद है या स्वतंत्र है आदि-आदि अनेक प्रश्न ! मेरे मन को ऐसे ही न जाने कितने प्रश्न उद्वेलित कर जाते है ।
स्त्रियाँ हजारों वर्ष से जो यातनाएं और तिरस्कार सहती आयी हैं उनके कारणों की खोज करें तो ये तथ्य सामने आते हैं- पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री को दासी बना कर रखने कि प्रवृत्ति धीरे धीरे निर्मित हुयी , इसीलिए हम विभिन्न साहित्यकारों के साहित्य में उनका अपमान देख सकते है । तुलसी दास जी जैसा महान मनीषी संत नारी को ढ़ोल के समान कह कर निरादर कर सकते है इतना ही नहीं जिस देश में नारी को देवी , लक्ष्मी , दुर्गा इत्यादि नामो के आसनों पर आसीन किया जाता है जो स्त्री पुरुष को भी जन्म देती है लालन पालन और पोषण करती है उसी नारी को बाद में वही पुरुष 'भारी’ कह कर अपमानित करता है। तुलसी से नारी जाती को अपमानित करने वाले एवं हीन प्रमाणित करने वाले साक्ष्यों की अपेक्षा नहीं थी । विभिन्न मौकों पर वह नारी को हीन दर्शाने से नहीं चूके । तभी सीता को अग्नि परीक्षा और बाद में जीवन पर्यन्त वनवास का दण्ड भी दिलवा दिया और राम को कोई दोष न दे इसलिए उन्होने इसे राजधर्म की संज्ञा दे डाली, जिसे पुरुष ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। एक अन्य महाकाव्य महाभारत को देखे उसमें भी पूरी महाभारत का कारण एक स्त्री को ही बनाया गया । वह भरी सभा में निर्वस्त्र की जा सकती है !! तब कोई महान पुरुष उठ कर प्रतिकार भी नहीं करता । सभी सर झुकाये बैठे रहते है । कुंती द्वारा दुर्वासा द्वारा दिये गए मंत्र की परीक्षा के लिए सूर्य का आवाहन कर लेना और पुत्र प्राप्त कर जाना पाप हो जाता है । लोक लाज के भय से एवं परिवार के सौख्य के लिए उसका त्याग समय अनुसार उचित हो जाता है किन्तु उसी पुत्र का सच छुपा कर रखना अंत में दंडनीय हो जाता है जिसके कारण युधिष्ठिर द्वारा अभिशाप भी दे दिया जाता है जो आज तक समस्त नारी जाती भोग रही है । परिवार बढ़ाने के उद्ïदेश्य से उसी कुंती को पति के द्वारा विभिन्न देवताओं का आवाहन कर उनसे पुत्र प्राप्त करना सही हो जाता है । क्योंकि वहाँ पति की अनुमति शामिल होती है । तो पुरा- काल से हम देखते आ रहे है कि नारी को पुरुष अनुचरी के रूप में ही देखना चाहता है वह उससे श्रेष्ठ हो यह उससे कदापि बर्दाश्त नहीं है। यहाँ भी राजधर्म कहकर खुद को समझाने का प्रयास किया गया । यदि ये राजकुलों की स्त्रियाँ राजधर्म की शिकार हो सकती हैं तो साधारण या आम नारी की बात ही अलग है । उनके साथ होने वाली घटनाओं को उनके ही चारित्रिक पतन का दोष मान लिया जाता है ।
आज के युग में नारी काफी हद तक स्वतंत्र हुयी है अब वह केवल कोमलांगी या अबला नहीं है । अब हर कार्य क्षेत्र में उसने अपनी सामर्थ्य को सिद्ध किया है जब स्त्री अपने शरीर में एक जीवन को पाल पोस सकती है तो भला वह अबला कैसे ? जब वह अपने बच्चों के लिए लड़ सकती हैं तो वह कोमलांगी कैसे ?
अब नारियाँ धीरे-धीरे खुद के लिए आवाज उठाना सीख गयी हैं अपने अधिकारों के लिए लडऩा सीख गयी है। उनकी सोच ढर्रावादी या भावुक न होकर ठोस यथार्थ वादी हो रही है। नारी ही क्यों सहे समाज के , नैतिकता के नाम पर समाज के प्रपंच !! जो पुरुष सब कुछ करके भी छूट सकता है वह एक स्त्री की परीक्षा लेने का अधिकारी कैसे हो सकता है ? कौन पवित्र है, शुचिता क्या है ? ये सब प्रश्न अब बेमानी है । इसी संबंध में नासिरा शर्मा की एक कहानी 'बावली’ याद आती है । ' मेरे वजूद की दीवारों पर बेशुमार ताक बने हुये थे जिनमें विभिन्न कबूतरों ने बसेरा कर लिया था । ताकों के बड़े-बड़े दर्रों में गर्मी से तपती दोपहर से थके हुये कितने परिंदे मेरे ठंडे वजूद में पनाह लेने बेशुमार आए ।’
नारी का शोषण केवल पति द्वारा ही होता हो ऐसा भी नहीं है । माध्यम वर्गीय संस्कार युक्त अकेली स्त्री का जीवन बहुत कठिन है अगर स्त्री तलाक शुदा है या विधवा है तो समाज उसे चैन से जीने नहीं देता । मालती जोशी जी ने नारी की पहचान को बनाने का प्रयास किया है वह आज भी कठपुतली बनी हुयी है इशारों पर नाचने वाली औरत ! आज भी दर्द और आँसुओं की तस्वीर है । महादेवी जी ने 'गोपा’ और 'मैत्रेयी’ जैसी महान नारियों का उदाहरण देकर प्राचीन काल में नारी की स्थिति क्या थी, इसका भी जिक्र किया है । महादेवी जी ने जो इतना क्षोभ और तेज तीखा तीव्र प्रहार अपनी कलम से किया है वह उनके अपने अनुभवों द्वारा व्यक्त किए गए हैं । मुझे ऐसा समीचीन प्रतीत होता है कि यदि स्त्रियां की समस्याएँ जब पुरुष और समाज से जुड़ी हुयी है तो समस्याओं के समाधान उनको पृथक रख कर कैसे किए जा सकते है ? स्त्री तो समाज का प्रमुख तत्व है उसके सुख दु:ख का, उसके सम्मान का तथा उस पर हो रहे अत्याचार का प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है । जहां तक पुरुष से संबंध की बात है तो वे एक दूसरे के पूरक हैं । यदि पुरुष शक्तिवान है तो स्त्री उसकी शक्ति है जिससे वह शक्तिमान होने का गौरव प्राप्त करता है । यदि स्त्रियां पर हुये अत्याचारों का सर्वेक्षण कराया जाय तो निश्चित ही यह आश्चर्यजनक तथ्य हमारे सामने आयेगा कि स्त्रियां को पीड़ा पहुंचाने में पुरुषों कि अपेक्षा स्त्रियां की भागीदारी कहीं अधिक है । पाश्चात्य संस्कृति और भारतीय संस्कृति में स्त्री विमर्श पर विचारों का पृथक होना स्वाभाविक है क्योंकि हमारे देश में नारी को गृहस्वामिनी का दर्जा दिया जाता है । यदि ध्यान से हम देखें तो पाएंगे कि अपरोक्ष रूप घर की बागडोर स्त्री के ही हाथ में होती है क्योंकि परिवार समाज की प्रथम इकाई होता है । स्त्रियाँ ही देश का भविष्य लिखतीं है । वे भविष्य के कर्णधारों को जन्म देती है उन्हे पालन पोषण देती है उनकी प्राथमिक शिक्षा का दायित्व लेती हैं उनमें अच्छे संस्कारों का पोषण करती हैं इसी गरिमा के कारण उसे गृहस्वामिनी कहा जाता है । और इसके विपरीत पाश्चात्य संस्कृति की महिलाएँ स्वच्छंद जीवन जीती आयी है और उनकी नकल के कारण हमारे देश में ऐसे विषम समस्याएँ उठने लगीं है । इसी क्रम में ऋचा शर्मा जी अपनी कविता के माध्यम से कहती है-
मैं स्त्री हूँ,
स्त्रीवादी नहीं हूँ ।
मत रोको मुझे
कुछ कहने से
बेवजह मत रोको बोलने से
अनर्गल प्रलाप नहीं
कुछ सार्थक कहाँ चाहती हूँ।
संस्कृति, संस्कार, परंपरा
जैसे शब्द
समाज की नजरों में
सिर्फ स्त्री के लिए ही है
पुरुष की मर्यादा दिखाने को
समाज के शब्द कोश में
कोई शब्द ढूँढे नहीं मिला !!
इसमें कोई संदेह नहीं कि नारी की पीड़ा से मुक्ति के लिए छटपटाहट ही नारी वादी चेतना को जन्म देती है । आज जागृत और साधन सम्पन्न स्त्रियां ने अपनी जगह निसन्देह सुनिश्चित कर ली है । विषय बहुत वृहद है जितना लिखा जाए कम है।
स्त्रियाँ हजारों वर्ष से जो यातनाएं और तिरस्कार सहती आयी हैं उनके कारणों की खोज करें तो ये तथ्य सामने आते हैं- पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री को दासी बना कर रखने कि प्रवृत्ति धीरे धीरे निर्मित हुयी , इसीलिए हम विभिन्न साहित्यकारों के साहित्य में उनका अपमान देख सकते है । तुलसी दास जी जैसा महान मनीषी संत नारी को ढ़ोल के समान कह कर निरादर कर सकते है इतना ही नहीं जिस देश में नारी को देवी , लक्ष्मी , दुर्गा इत्यादि नामो के आसनों पर आसीन किया जाता है जो स्त्री पुरुष को भी जन्म देती है लालन पालन और पोषण करती है उसी नारी को बाद में वही पुरुष 'भारी’ कह कर अपमानित करता है। तुलसी से नारी जाती को अपमानित करने वाले एवं हीन प्रमाणित करने वाले साक्ष्यों की अपेक्षा नहीं थी । विभिन्न मौकों पर वह नारी को हीन दर्शाने से नहीं चूके । तभी सीता को अग्नि परीक्षा और बाद में जीवन पर्यन्त वनवास का दण्ड भी दिलवा दिया और राम को कोई दोष न दे इसलिए उन्होने इसे राजधर्म की संज्ञा दे डाली, जिसे पुरुष ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। एक अन्य महाकाव्य महाभारत को देखे उसमें भी पूरी महाभारत का कारण एक स्त्री को ही बनाया गया । वह भरी सभा में निर्वस्त्र की जा सकती है !! तब कोई महान पुरुष उठ कर प्रतिकार भी नहीं करता । सभी सर झुकाये बैठे रहते है । कुंती द्वारा दुर्वासा द्वारा दिये गए मंत्र की परीक्षा के लिए सूर्य का आवाहन कर लेना और पुत्र प्राप्त कर जाना पाप हो जाता है । लोक लाज के भय से एवं परिवार के सौख्य के लिए उसका त्याग समय अनुसार उचित हो जाता है किन्तु उसी पुत्र का सच छुपा कर रखना अंत में दंडनीय हो जाता है जिसके कारण युधिष्ठिर द्वारा अभिशाप भी दे दिया जाता है जो आज तक समस्त नारी जाती भोग रही है । परिवार बढ़ाने के उद्ïदेश्य से उसी कुंती को पति के द्वारा विभिन्न देवताओं का आवाहन कर उनसे पुत्र प्राप्त करना सही हो जाता है । क्योंकि वहाँ पति की अनुमति शामिल होती है । तो पुरा- काल से हम देखते आ रहे है कि नारी को पुरुष अनुचरी के रूप में ही देखना चाहता है वह उससे श्रेष्ठ हो यह उससे कदापि बर्दाश्त नहीं है। यहाँ भी राजधर्म कहकर खुद को समझाने का प्रयास किया गया । यदि ये राजकुलों की स्त्रियाँ राजधर्म की शिकार हो सकती हैं तो साधारण या आम नारी की बात ही अलग है । उनके साथ होने वाली घटनाओं को उनके ही चारित्रिक पतन का दोष मान लिया जाता है ।
आज के युग में नारी काफी हद तक स्वतंत्र हुयी है अब वह केवल कोमलांगी या अबला नहीं है । अब हर कार्य क्षेत्र में उसने अपनी सामर्थ्य को सिद्ध किया है जब स्त्री अपने शरीर में एक जीवन को पाल पोस सकती है तो भला वह अबला कैसे ? जब वह अपने बच्चों के लिए लड़ सकती हैं तो वह कोमलांगी कैसे ?
अब नारियाँ धीरे-धीरे खुद के लिए आवाज उठाना सीख गयी हैं अपने अधिकारों के लिए लडऩा सीख गयी है। उनकी सोच ढर्रावादी या भावुक न होकर ठोस यथार्थ वादी हो रही है। नारी ही क्यों सहे समाज के , नैतिकता के नाम पर समाज के प्रपंच !! जो पुरुष सब कुछ करके भी छूट सकता है वह एक स्त्री की परीक्षा लेने का अधिकारी कैसे हो सकता है ? कौन पवित्र है, शुचिता क्या है ? ये सब प्रश्न अब बेमानी है । इसी संबंध में नासिरा शर्मा की एक कहानी 'बावली’ याद आती है । ' मेरे वजूद की दीवारों पर बेशुमार ताक बने हुये थे जिनमें विभिन्न कबूतरों ने बसेरा कर लिया था । ताकों के बड़े-बड़े दर्रों में गर्मी से तपती दोपहर से थके हुये कितने परिंदे मेरे ठंडे वजूद में पनाह लेने बेशुमार आए ।’
नारी का शोषण केवल पति द्वारा ही होता हो ऐसा भी नहीं है । माध्यम वर्गीय संस्कार युक्त अकेली स्त्री का जीवन बहुत कठिन है अगर स्त्री तलाक शुदा है या विधवा है तो समाज उसे चैन से जीने नहीं देता । मालती जोशी जी ने नारी की पहचान को बनाने का प्रयास किया है वह आज भी कठपुतली बनी हुयी है इशारों पर नाचने वाली औरत ! आज भी दर्द और आँसुओं की तस्वीर है । महादेवी जी ने 'गोपा’ और 'मैत्रेयी’ जैसी महान नारियों का उदाहरण देकर प्राचीन काल में नारी की स्थिति क्या थी, इसका भी जिक्र किया है । महादेवी जी ने जो इतना क्षोभ और तेज तीखा तीव्र प्रहार अपनी कलम से किया है वह उनके अपने अनुभवों द्वारा व्यक्त किए गए हैं । मुझे ऐसा समीचीन प्रतीत होता है कि यदि स्त्रियां की समस्याएँ जब पुरुष और समाज से जुड़ी हुयी है तो समस्याओं के समाधान उनको पृथक रख कर कैसे किए जा सकते है ? स्त्री तो समाज का प्रमुख तत्व है उसके सुख दु:ख का, उसके सम्मान का तथा उस पर हो रहे अत्याचार का प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है । जहां तक पुरुष से संबंध की बात है तो वे एक दूसरे के पूरक हैं । यदि पुरुष शक्तिवान है तो स्त्री उसकी शक्ति है जिससे वह शक्तिमान होने का गौरव प्राप्त करता है । यदि स्त्रियां पर हुये अत्याचारों का सर्वेक्षण कराया जाय तो निश्चित ही यह आश्चर्यजनक तथ्य हमारे सामने आयेगा कि स्त्रियां को पीड़ा पहुंचाने में पुरुषों कि अपेक्षा स्त्रियां की भागीदारी कहीं अधिक है । पाश्चात्य संस्कृति और भारतीय संस्कृति में स्त्री विमर्श पर विचारों का पृथक होना स्वाभाविक है क्योंकि हमारे देश में नारी को गृहस्वामिनी का दर्जा दिया जाता है । यदि ध्यान से हम देखें तो पाएंगे कि अपरोक्ष रूप घर की बागडोर स्त्री के ही हाथ में होती है क्योंकि परिवार समाज की प्रथम इकाई होता है । स्त्रियाँ ही देश का भविष्य लिखतीं है । वे भविष्य के कर्णधारों को जन्म देती है उन्हे पालन पोषण देती है उनकी प्राथमिक शिक्षा का दायित्व लेती हैं उनमें अच्छे संस्कारों का पोषण करती हैं इसी गरिमा के कारण उसे गृहस्वामिनी कहा जाता है । और इसके विपरीत पाश्चात्य संस्कृति की महिलाएँ स्वच्छंद जीवन जीती आयी है और उनकी नकल के कारण हमारे देश में ऐसे विषम समस्याएँ उठने लगीं है । इसी क्रम में ऋचा शर्मा जी अपनी कविता के माध्यम से कहती है-
मैं स्त्री हूँ,
स्त्रीवादी नहीं हूँ ।
मत रोको मुझे
कुछ कहने से
बेवजह मत रोको बोलने से
अनर्गल प्रलाप नहीं
कुछ सार्थक कहाँ चाहती हूँ।
संस्कृति, संस्कार, परंपरा
जैसे शब्द
समाज की नजरों में
सिर्फ स्त्री के लिए ही है
पुरुष की मर्यादा दिखाने को
समाज के शब्द कोश में
कोई शब्द ढूँढे नहीं मिला !!
इसमें कोई संदेह नहीं कि नारी की पीड़ा से मुक्ति के लिए छटपटाहट ही नारी वादी चेतना को जन्म देती है । आज जागृत और साधन सम्पन्न स्त्रियां ने अपनी जगह निसन्देह सुनिश्चित कर ली है । विषय बहुत वृहद है जितना लिखा जाए कम है।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (02-07-2018) को "अतिथि देवो भवः" (चर्चा अंक-3018) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी