Tuesday, 1 May 2018


समीक्षा-- डॉ पवन विजय कृत "बोलो गंगा पुत्र !"

पुराकाल से ही हम यह देखते आ रहे हैं कि सत्य कह पाने की क्षमता हर एक में नहीं होती । कोई ही विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न होता है जो सत्य कह पाने की क्षमता रखता है । वरन अधिकतर लोग कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में झूठ का सहारा लेते ही है । साथ ही ये कह कर खुद को सुरक्षित कर लेते हैं कि किसी की जान बचाने को या किसी की भलाई के लिए बोला गया झूठ, झूठ की श्रेणी में नहीं गिना जाता । अजीब विडम्बना है न !
रामायण और महाभारत ग्रन्थों को ही ले तो हम पाएंगे कि रामायण में सत्य, नीति, नियम, मर्यादा, लोक कल्याण के संदेश है उसमें झूठ का कोई काम नहीं । वहीं दूसरी ओर महाभारत ग्रंथ साज़िशों , छल प्रपन्च, नीति विरुद्ध, नियमों का उल्ल्ङ्घन, कुलवधू का अपमान इत्यादि की कहानी कहता है । अंत में श्री कृष्ण को नायक के रूप में लाकर इस ग्रंथ की महत्ता को बढ़ाया गया । क्योंकि यदि श्री कृष्ण द्वारा गीता का ज्ञान न दिया गया होता तो शायद यह ग्रंथ लोकप्रिय न होता ।
दादी नानी अक्सर कहती कि महाभारत ग्रंथ घर में नहीं रखते न ही पढ़ा जाता है इसीलिए शायद महाभारत ग्रंथ को मैंने पढ़ा नहीं । किन्तु इस पर बना सीरियल जरूर देखा और वही से इसकी पूरी कहानी ज्ञात हुयी , तब अवश्य यह उत्कंठा जागी कि इस ग्रंथ को पढ़ा जाना चाहिए । क्योंकि यह केवल बुराइयों का ग्रंथ नहीं अपितु इसमें भी तर्क संगत कसौटियों का चित्रण मिलता है ।
प्रिय अनुज डॉ0 पवन विजय द्वारा महाभारत ग्रंथ की घटनाओं का गूढ अध्ययन एवं उनकी पुनर्व्याख्या का सारांश “बोलो गंगापुत्र !!” के रूप में जब मुझे मिला तो मैंने उस पुस्तक को कई बार पढ़ा । लगा कि मेरे अनुज का कद एकाएक बढ़ गया है और मैं उसके चिंतन के समक्ष बौनी हो गई हूँ । इतना गहन चिंतन !! स्पष्ट व्याख्या !
पूरी महाभारत में श्री कृष्ण के पश्चात भीष्म पितामह के किरदार ने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया था । कहाँ तो युधिष्ठिर , भीम , अर्जुन, की गाथाएँ सुनते हुये हम उन्हे ही महाभारत के नायक के रूप में जानते थे। किन्तु अनुज पवन के पूरे पंद्रह वर्षों के मंथन के बाद जो अमृत निकला वह “बोलो गंगा पुत्र” के रूप में दिखता है। “आह वत्स दुर्योधन!” कथन शीर्षक में काल के प्रश्नों के उत्तर दो गंगापुत्र !के द्वारा पवन अनसुलझे प्रश्नों के उत्तर मांगते है तथा वे सबकुछ कहते है जो उन्हे सही दीखता है । वे दुर्योधन को नायक बनाते है, वे एकलव्य को नायक बनाते है।
“काली” शीर्षक में भीष्म का पिता के प्रति अत्यधिक निष्ठावान या मोहान्ध होने के कारण नई माता सत्यवती के समक्ष आजीवन अविवाहित रहकर हस्तिनापुर की गद्दी की सुरक्षा के प्रति दृढ़ प्रतिज्ञा का प्रश्न भी काल के प्रश्नों मे शामिल करते है । “राजनीति में सत्ता ही धर्म है । सत्ता के लिए जो किया गया सब धर्म था ।” “बोलो गंगापुत्र!” पुनः काल का प्रश्न- “आप प्रामाणिकता की बात करते हैं यदि प्रामाणित करने वाले के मन में ही खोट हो तो उसके द्वारा प्रमाणित बातें कौन से सिद्धांत का निर्माण करेंगी ?”
संजय की दिव्य दृष्टि से देखे गए सत्य को पवन परिभाषित करते हैं “पितामह जो होना था वह तो हो चुका अब कुछ बचा ही नहीं फिर भी आप पूछते है तो कहता हूँ कि समय और परिस्थितियों के अनुसार सभी ने पाप पुण्य को परिभाषित किया है यदि महाराज धृतराष्ट्र ने अपनी महत्त्वाकांक्षा पर, युधिष्ठिर ने अपनी जूंए की लत पर और दुर्योधन अपनी जिद पर थोड़ा अंकुश लगाते तो स्थितियाँ भिन्न होती । नियमानुसार यदि दुर्योधन को राजा बनाया जाता तो शायद यह सब होता ही नहीं । और एकलव्य जो केवल दूर से शिक्षा ग्रहण कर रहा था गुरु की मूर्ति बनाकर उन्हे पूज रहा था यदि उसका अंगूठा न मांग लिया जाता तो निश्चित ही वह सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर होता इसमें कोई शक नहीं यह भी तो केवल अर्जुन के लिए किया गया था। भरी सभा में कुलवधू की अस्मिता को उतारा जाना और उस पर मनीषियों का मौन! कहाँ तक धर्म की बात कह कर खुद को सही कहेंगे आप ?”
इसीतरह अनेक विषम परिस्थितियों से गुजरते हुये अनेक प्रश्नों के उत्तर देते हुये कई बार भीष्म दुखित होते है और उन्हे अपनी गलती का अहसास भी होता है कि जिसे वे अभी तक अपना कर्तव्य समझ कर कार्य कर रहे थे वह तो मात्र उनका मोह था जिसके आवेग में वे ही क्या समस्त हस्तिनापुर बह गया था। जब उन्होने भीष्म प्रतिज्ञा ली होगी कि जब तक हस्तिनापुर की राजगद्दी को सुरक्षित नहीं कर देता तब तक अपने प्राण नहीं त्यागूंगा, तब उन्हे कहाँ ज्ञात होगा कि इतना बड़ा महाभारत का युद्ध हो जाएगा, इतना रक्तपात हो जाएगा और उन्हे खुद इस प्रकार शरों की शैया पर सोना पड़ेगा। महाप्रयाण के समय भीष्म पितामह को लेने आया काल कहता है “आपकी इच्छानुसार अब आपको लेने आया हूँ , किन्तु आजतक किसी मृत्युलोक वासी को इतने आनंद के साथ प्राण त्यागते नहीं देखा।” अपने अंतिम क्षणों में भीष्म युधिष्ठिर को उपदेश देते है, “ मैं जो कह रहा हूँ उसका आधार मानव द्वारा निर्मित न्याय नहीं परमात्मा द्वारा प्रदत्त भाव है । धर्म के साथ खड़े रहने पर तुम्हारा एकाधिकार नहीं है। प्राणि मात्र के प्रति मैंने भी अपनी संवेदनाओं को केवल तुम लोगों तक ही समेटने का अपराध किया है इसलिए मैंने  अपने द्वारा किए गए अपराधों का दंड भोग लिया है अब मेरे जाने का समय है । किन्तु मैं तुम्हें आदेश दूंगा कि तुम अपने अपराधों का प्रायश्चित करना और शेष जीवन तपश्चर्या में लगाना, वत्स! इसी में तुम्हारा और तुम्हारे कुल का कल्याण है ।”   
“बोलो गंगापुत्र !!” इस पुस्तक को पढ़कर कोई भी प्रथम दृष्ट्या हो सकता है यह कहे कि भीष्म पितामह का चरित्र इतना निष्पाप, निश्छल रहा उनको दोषी बनाया गया है । किन्तु पुस्तक को पढ़कर उसके चिंतन को, उसकी पुनर्व्याख्याको समझना ही आद्योपांत बड़ा कार्य है । तभी हमें सारे सवालों के जवाब मिल पाते है। लेखक ने बखूबी इन सभी पर दृष्टिपात करवाया है। महात्मा भीष्म का मौन अखरता है जिसकी पीड़ा उनके वक्तव्यों से साफ झलकती है । क्योंकि मृत्युजयी गंगापुत्र भीष्म राजहित के मोह में तथा पूर्वाग्रहों के कारण दुविधाग्रस्त हो कर इतनी बड़ी महाभारत का कारण बने । अंतिम क्षणों में अपने अपराध भाव को कृष्ण को समर्पित करते हुये उनसे विदा मांगते है । श्री कृष्ण उन्हे समस्त कर्मों से मुक्त करते हुये कहते है “हे निष्पाप ! हे मृत्यु को वश में करने वाले ! हे गंगा पुत्र ! आपने अपने समस्त कर्म फलों को यहीं पर भस्म कर दिया है अब आप बैकुंठ लोक को प्रयाण करो महात्मन !”
लेखक ने सहजता से सभी प्रश्नो को काल के द्वारा उठाकर उत्तर भी दिलाने की सफलतम चेष्टा की जिसमें वह सफल भी हुआ है । इस सफलतम और उच्चकोटि के लेखन के लिए बहुत-बहुत बधाई और अनेकों शुभकामनायें प्रिय अनुज पवन विजय को ।    
प्रेषिका –
अन्नपूर्णा बाजपेयी अंजु
कानपुर ।

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (03-05-2017) को "मजदूरों के सन्त" (चर्चा अंक-2959) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. भीष्म पितामह की सत्ता के प्रति निष्ठा ने ही दुर्योधन को अराजक हो जाने दिया..पितामह इससे बरी नहीं हो सकते थे.
    अपने मन के भावों को इस रचना में साकार पाया....
    अच्छी समीक्षा!

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