Wednesday 16 July 2014

साहित्य और सावन ------


आकाश में काले-काले बादलों के छाते ही मन में उमंग जाग उठती है। मन करता है कि उड़ कर बादलों को छू लिया जाए। इसी इच्छा को पूरी करने के लिए वृक्षों की शाखाओं पर झूले डाल दिए जाते हैं और उन झूलों पर बैठ कर ऊंची-ऊंची पींगें लेने की होड़ लग जाती है। झूला झूलने वाला हर व्यक्ति बादलों को सबसे पहले अपनी मुट्ठी में भर लेना चाहता है। विशेष रूप से युवतियां और किशोरियां झूला झूलना चाहती हैं क्यों कि झूलों का आनन्द उनके किशोरवय के सपनों जैसा होता है। सावन मास आते ही झूले डाले जाने की परम्परा द्वापर युग से चली आ रही है। जब श्रीकृष्ण ब्रज की गोपियों के साथ जी भर कर झूला झूलते थे और सावन की ठंडी फुहारों का आनन्द लेते थे। सावन मास आते ही गांव-गांव में सैरे गाए जाने लगते हैं। इसे मूलतः सावनगीत कहा जा सकता है। जिस प्रकार श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रेमरस से भीगे गीत सावन की ऋतु को ऊर्जा प्रदान करते हैं, ठीक उसी तरह सैरे भी प्रेमरस से भीगे हुए गीत होते हैं। इसे युवक और युवतियां उल्लासपूर्वक गाते हैं। कुछ गीत सिर्फ युवक ही गाते हैं। इन गीतों में प्रेम के साथ ही हास-परिहास और व्यंग-विनोद भी होता है। परस्पर बातचीत भी होती है और छेड़खानी भी होती है।
सावन मास में ही राछरे गीत गाए जाते हैं। राछरे गीत मुख्य रूप से स्त्रियां गाती हैं किन्तु कभी-कभी पुरुष भी इसे गाते हैं। इन गीतों में विवाहिताओं की उन स्मृतियों का विवरण होता है जो उनके मायके से जुड़ी होती हैं। इन गीतों में वे अपने माता-पिता, भाई-बहन, सखी-सहेली आदि को याद करती हैं। ये गीत चक्की चलाते हुए, झूला झूलते हुए और अन्य घरेलू काम करते हुए गाए जाते हैं। जबकि कजरियां गीत श्रावण शुक्ल नवमीं को कजरियां बोने से शुरू होते हैं। सावन की नौवमी तिथि को स्त्रियां झुण्ड के रूप में मिट्टी लेने जाती हैं। पहले उस स्थान की पूजा की जाती है जहां से मिट्टी खोली जानी होती है फिर गेंहू ओर जौ के दाने मिट्टी में दबा कर मिट्टी खोदी जाती है। उस मिट्टी को घर ला कर मिट्टी के बरतनों में रख कर उसमें गेंहू या जौ बो दिया जाता है। इन दानों को रोज सींच कर बड़ा किया जाता है। कजरिया के रूप में बढ़ने वाली गेंहू की पौध अच्छी पैदावार के लिए शगुन की भांति होती है।
कजरिया बोने के समय कजरिया गीत गाए जाते हैं। कभी-कभी राछरे गीत भी कजरियों के साथ गाए जाते हैं। कजरियों की राछरों में आल्हा-ऊदल के युद्धों का वातावरण भी मिलता है। जैसे एक गीत में माँ अपनी बहन और बेटी को कजरिया सिराने के लिए बुला रही है किन्तु साथ में यह भी चेतावनी दे रही है कि वह किसी दुश्मन के हाथ न पड़ जाए अन्यथा कुल की प्रतिष्ठा धूल में मिल जाएगी।

धरी कजरियां तरा के पारैं, बिटिया आन सिराव
टूटी फौजें दुस्मन की बहिना, भगने हो भग जाओ।
हांत न परियो तुम काऊ के, लग जैहे कुल में दाग।।

आल्हा जोश और मस्ती का काव्य है। सावन के बादलों के घिरते ही आल्हा काव्य की अनेक पंक्तियां वातावरण में सरसता घोलने लगती हैं। यह मूलतः वीररस का काव्य है किन्तु इसमें श्रंृगार रस के विभन्न रूपों का भी रसास्वादन होता है। आल्हा काव्य में जगनिक ने बड़े ही सुन्दर ढंग से सावन के बादलों से बरसने का आग्रह किया है। नवविवाहिता रानी कुसुमा बादलों से प्रार्थना करती है कि वे उसके महलों पर इतना बरसें कि उसका प्रिय उसे छोड़ कर न जा सके और उसकी आंखों के सामने बना रहे।

कारी बदरिया तुमको सुमरों, कौंधा बीरन की बलि जाऊं
झमकि बरसियो मोरे महलन पै, कंता आज नैनि रह जाएं।।

मेंहदी के रंग और वर्षा की बूंदों का संग बेहद आकर्षित करते रहे हैं। सावन आते ही मेंहदी की झाड़ियों के पत्ते चटख, गहरे हरे रंग में अपनी छटा बिखेरने लगते हैं। यही पत्ते जब पिसने के बाद हथेलियों पर लगाए जाते हें तो सुन्दर लाल रंग की छाप छोड़ जाते हैं। सावन का महीना हथेलियों पर मेंहदी रचाने का आमन्त्रण देने लगता है। आजकल बनी-बनाई मेंहदी भी बाजार में उपलब्ध हो जाती है जिससे मेंहदी लगाने का चाव परम्परागत रूप से प्रवाहमान है।
सावन आते ही चपेटा का खेल भी खेला जाने लगता है। सुदूर ग्रामीण अंचलों में आज भी किशोंरियां चपेटा खेलती हुई दिखाई दे जाती हैं। सावन की झड़ी में बाहर निकल कर खेल पाना कठिन होता है अतः घर के भीतर बैठ कर खेला जाने वाले खेल का लोकप्रिय होना स्वाभाविक है। ये पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ों अथवा लाख के टुकड़ों से खेला जाने वाली खेल है। इन टुकड़ों को चपेटाया गुट्टाकहा जाता है। जो युवतियां लाख के सजावटी लाख के चपेटे नहीं खरीद पाती हैं, वे कंकडों को चपेटों के रूप में काम में लाती हैं। यह बहुत रोचक खेल है। इसमें बाकायदा दाम दिए और लिए जाते हैं। हार-जीत होती है।
सावन का महीना आते ही नव विवाहित लड़कियां अपने मायके जाने की बाट जोहने लगती हैं , रह-रह कर उन्हे हर अपना बचपन याद आने लगता है और माँ के घर की याद आने लगती है ।
चूनर ने पत्र लिख दिया

धानी रंग, रंगा है जिया
काग़ज़ की नाव भी तरे
बरसाती दिन, अब जा के हुए हरे।


सावन के माह का अंतिम दिन श्रावणी पुर्णिमा का होता है इसे हम रक्षाबंधन भी कहते है । इस दिन का सभी भाई बहनो को इंतजार रहता है । इस त्योहार मे वय कोई मायने नहीं रखती । इसी के साथ सावन गर्मी से निजात दिला कर चला जाता है । 

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