Monday 15 July 2013

कविता - टूटते रिश्तों की किरचें




टूटे रिश्तों की किरचियाँ ,
कभी जुड़ नहीं पातीं ,
शायद कोई जादू की छड़ी ,
जोड़ पाती ये किरचियाँ ।
           ये चुभ कर निकाल देतीं हैं ,
            दो बूंद रक्त की , और अधिक
            चुभन के साथ बढ़ जाती है ,
            पीड़ा न दिखाई देती हैं ।
चुप रह कर सह जाती हूँ ,
आँख मूँद कर देख लेती हूँ ,
शायद कोई प्यारी सी झप्पी ,
मिटा पाती ये दूरियाँ ।  

5 comments: