किसी पेड़ के पत्ते एवं फूलों की सफाई से वह पेड़ हरा-भरा नहीं हो जाता , बल्कि उसकी जड़ों को पोषण मिलने पर ही पेड़ बड़ा होगा ,फूलेगा फलेगा । ऐसे पल्लवित , पुष्पित एवं विकसित वृक्ष के नीचे पथिक कुछ देर विश्राम कर लेता है , उसके फलों से पथिक की भूख मिटती है , ठीक उसी तरह व्यक्ति को समाज का अच्छा नागरिक बनने के लिए अगर बचपन से ही उसके क्रिया कलापों की सही दिशा निर्धारित की जाय तो समाज को एक अच्छा नागरिक मिलेगा ।
बबूल का बीज बोकर आम के पेड़ की आशा नहीं की जा सकती । बच्चे के मन मे रोपा गया बीज समाज हित मे कोई फल देता है तो वह संस्कारी होने का प्रतीक है। मनुष्य का आचरण ही उसके व्यक्तित्त्व की व्याख्या करता है। संस्कार उस नींव का नाम है जिस पर व्यक्तित्व की इमारत खड़ी होती है । एक सुसंस्कारित व्यक्ति अपनी अवधारणाओं से और एक व्यक्ति अपने चरित्र से जाना जाता है । संस्कारवान संतान ही गृहस्थ आश्रम की सफलता का सच्चा लक्षण है। हर माँ बाप चाहते है कि उनकी संतान उनकी अपेक्षा के अनुसार बने , परंतु कई बाहरी परिस्थितियाँ ,सांस्कृतिक प्रदूषण , उपभोक्ता संस्कृति जैसे कारण आज की युवा पीढ़ी एवं बच्चों को अपनी गिरफ्त मे लिए हुए है। खान पान, रहन सहन , तौर तहजीब, चिंतन मनन सभी क्षेत्रों मे पाश्चात्य संस्कृति एवं सभ्यता हवी होती जा रही है। कुसंस्कारों की बाढ़ मे डूबने से पहले ही हमे सचेत होना पड़ेगा ।
घर संस्कारों की जन्मस्थली है। इसलिए संस्कारित करने का कार्य हमे घर से ही प्रारम्भ करना होगा । संस्कारों का प्रवाह हमेशा बड़ों से छोटों की ओर होता है । बच्चे उपदेश से नहीं अनुकरण से सीखते हैं । बालक की प्रथम गुरु माँ ही अपने बालक मे आदर , स्नेह , एवं अनुशासन जैसे गुणों का सिंचन अनायास ही कर देती है। परिवार रूपी पाठशाला मे बच्च अच्छे बुरे का अंतर समझने का प्रयास करता है । जब इस पाठशाला के अध्यापक अर्थात दादा दादी तथा माता पिता संस्कारी होंगे , तभी बच्चों के लिए आदर्श स्थापित कर सकते है। आजकल परिवार मे माता पिता दोनों ही व्यस्त है दोनों ही नौकरी पेशा हैं इसलिए संस्कारों के सिंचन जैसा महत्तव पूर्ण कार्य उपेक्षित हो रहा है । आज धन को प्राथमिकता दी जा रही है। कदाचित माता पिता भौतिक सुख के संसाधन जुटा कर बच्चों को खुश रखने की कोशिश कर रहे है , इस भ्रांति मूलक तथ्य को जानना होगा , अच्छे संस्कार बच्चों मे छोड़ने का मानस बनाना होगा, इसके पहल माता पिता को करनी होगी । जो कुछ वह बच्चों से उम्मीद करते है पहले उन्हे कर के दिखाना होगा तब हम बच्चों को कुछ सिखा पाएंगे।
क्रमशः
अब आगे :-
आज की उद्देश्य हीन शिक्षा पद्धति बच्चों का सही मार्ग प्रशस्त नहीं करती । आज की युवा पीढ़ी शीघ्र पैसे कमाने के आसान तरीके अपना कर परिश्रम एवं धैर्य से दूर होती जा रही है। सात्विक प्रवृत्तियों के दमन से नैतिक आचरण का ह्रास होता जा रहा है । मर्यादा और अनुशासन का लोप हो रहा है । व्यक्ति का हृदय संकुचित हो गया है सोचने समझने की शक्ति का भी नाश हो रहा है । अन्तर्मन की बात सुनने की शक्ति के लिये उपयोगी ज्ञान की उपेक्षा हो रही है, सादगी का भी अभाव होता जा रहा है । आधुनिक संस्कृति अपनी जड़ें जमा रही है तथा कथित हाई सोसाइटी का का चलन बढ़ रहा है । इस चुनौती पूर्ण माहौल मे सुसंस्कारों प्रत्यारोपण कठिन कार्य हो गया है परंतु असंभव नही है । आज भी हमारी भारतीय संस्कृति मे कर्त्तव्यपरायणता, सहिष्णुता, उदारता आदि मानवीय मूल्य निहित हैं । आवश्यकता है तो बस, थोड़े से समन्वय की । हमारी संस्कृति क्या है ? इसे एक छोटे से उदाहरण से हम समझ सकते है ।
हमे भूख लगती है तो हम भोजन करते हैं - यह है प्रकृति। दूसरों का छीन कर खाते है तो - यह है विकृति। हम भोजन कर रहे हैं कोई भूखा व्यक्ति आता है, हम उसे पहले खिलाते हैं, फिर खुद खाते हैं - यह है संस्कृति। प्रकृति मे विकार आ जाने पर संस्कारों की आवश्यकता पड़ती है। संस्कार और संस्कृति एक ही धागे की दो गाँठे है। संस्कार के बीज बचपन मे डाले जाते है जो किशोरावस्था और इससे आगे फसल के रूप मे दिखाई देते है । संस्कृति की रक्षा युवावस्था मे की जाती है जो कि उचित संस्कार सिंचन से ही संभव है । जो व्यवहार अनुकरणीय और प्रेरक होता
है वही आचार विचार परंपरा बन कर संस्कृति कहलाती है ।
यदि सरल भाषा मे समझने का प्रयत्न करें तो व्यक्ति अनुशासित और सुंदर जीवन प्रणाली के विकास और दैनिक जीवन चर्या मेँ उसके समावेश कि प्रक्रिया को ही संस्कार कहा जा सकता है । दैनिक जीवन मे नियमितता लाना , व्यवहार मे सद्गुणों का समावेश करना एवं धैर्यपूर्वक हर स्थिति मे यथोचित धर्मयुक्त आचरण करना संस्कारित जीवन का द्योतक है । दुर्गुणों को हटा कर सद्गुणों का आह्वान करने का नाम संस्कार है । शुभ संस्कार, शुभ प्रकृति , शुभ रुचियाँ अच्छे कर्मों का फल हैं । जिस प्रकार पौष्टिक एवं स्वास्थ्य वर्धक भोजन से अच्छी सेहत बनती है ठीक उसी प्रकार अच्छे कर्मों के फल से अच्छे संस्कार बनते हैं । हम अन्य लोगों से जिस व्यवहार की अपेक्षा रखते है वैसा ही व्यवहार उनके प्रति करें यह धर्म है ।
सुसंस्कारों के लिए आवश्यक है - सुसंगति, अच्छी पाठ्य सामाग्री, ससाहित्य (अच्छा साहित्य ), उचित मार्गदर्शन एवं सहयोग । बच्चों के मन की कोमल सुंदर एवं अछूती भावनाओं की अभिवयक्ति काला द्वारा ही होती है। संगीत, कला, चित्रकला, मूर्ति कला, जिसमे भी बच्चे रुचि हो उस कला मे अभिभावक को सहयोगी बनना चाहिए इससे भी संस्कारों की समृद्धि होती है ।
माता पिता के द्वारा ध्यान देने योग्य बातें :-
1) बड़ों का आचरण ऐसा हो जिससे कोई गलत प्रभाव बच्चों पर न पड़े या वे ये न कहने पाएँ कि वे बड़े हैं वे भी ऐसा करते हैं तो मै क्यो नहीं ।
2) दैनिक जीवन नियमित एवं मर्यादित हो ।
3) व्यवहार मे सदगुणों का समावेश हो , सिर्फ भौतिक सुख सुविधा नहीं बल्कि बच्चों को चाहिए प्रेम , स्नेह, विश्वास, सकारात्मक भावना , संरक्षात्मक वातावरण ।
4) बच्चों से अधिक अपेक्षा न करें , बल्कि उन्हे प्रोत्साहन देते रहे ।
5) बच्चों के साथ पारिवारिक चर्चाए करें, परंतु नकारात्मक चर्चाए न करें इससे बच्चों के मन पर गलत असर पड़ता है, वे अपने मन मे गलत धारणा बना लेते है।
6) पारिवारिक कार्यक्रमों मे भारतीय पद्धति को प्रोत्साहन दें, जन्मदिन, शादी विवाह इत्यादि । इन कार्यक्रमों के दौरान आप अपने बच्चों को सभी का यथोचित मान सम्मान और सेवा का संस्कार सिखा सकते हैं।
7) घर के बड़े बुजुर्ग - दादी दादा , नाना नानी अपनी कहानियों , कहावतों और खुद के संस्मरणों के माध्यम से बड़ी बड़ी बातें तथा सफलता के कई सूत्र सिखा देते है जो किसी किताब मे नहीं होते ।
इस प्रकार हर माता पिता को ऐसा संकल्प लेना होगा कि उनके किसी आचरण का कुप्रभाव बच्चों पर न पड़े। बल्कि ऐसे संस्कारों का आदान करें जो उच्च कोटी के हों । भावी पीढ़ी को मनसा वाचा कर्मणा सशक्त बनाने हेतु उनमे शक्ति भक्ति और युक्ति का संगम करना है । प्रत्येक व्यक्ति अपना आँगन स्वच्छ रखना सीख ले तब दूसरों को भी प्रेरणा दे तो समूचे समाज मे बदलाव संभव हो सकेगा ।
बबूल का बीज बोकर आम के पेड़ की आशा नहीं की जा सकती । बच्चे के मन मे रोपा गया बीज समाज हित मे कोई फल देता है तो वह संस्कारी होने का प्रतीक है। मनुष्य का आचरण ही उसके व्यक्तित्त्व की व्याख्या करता है। संस्कार उस नींव का नाम है जिस पर व्यक्तित्व की इमारत खड़ी होती है । एक सुसंस्कारित व्यक्ति अपनी अवधारणाओं से और एक व्यक्ति अपने चरित्र से जाना जाता है । संस्कारवान संतान ही गृहस्थ आश्रम की सफलता का सच्चा लक्षण है। हर माँ बाप चाहते है कि उनकी संतान उनकी अपेक्षा के अनुसार बने , परंतु कई बाहरी परिस्थितियाँ ,सांस्कृतिक प्रदूषण , उपभोक्ता संस्कृति जैसे कारण आज की युवा पीढ़ी एवं बच्चों को अपनी गिरफ्त मे लिए हुए है। खान पान, रहन सहन , तौर तहजीब, चिंतन मनन सभी क्षेत्रों मे पाश्चात्य संस्कृति एवं सभ्यता हवी होती जा रही है। कुसंस्कारों की बाढ़ मे डूबने से पहले ही हमे सचेत होना पड़ेगा ।
घर संस्कारों की जन्मस्थली है। इसलिए संस्कारित करने का कार्य हमे घर से ही प्रारम्भ करना होगा । संस्कारों का प्रवाह हमेशा बड़ों से छोटों की ओर होता है । बच्चे उपदेश से नहीं अनुकरण से सीखते हैं । बालक की प्रथम गुरु माँ ही अपने बालक मे आदर , स्नेह , एवं अनुशासन जैसे गुणों का सिंचन अनायास ही कर देती है। परिवार रूपी पाठशाला मे बच्च अच्छे बुरे का अंतर समझने का प्रयास करता है । जब इस पाठशाला के अध्यापक अर्थात दादा दादी तथा माता पिता संस्कारी होंगे , तभी बच्चों के लिए आदर्श स्थापित कर सकते है। आजकल परिवार मे माता पिता दोनों ही व्यस्त है दोनों ही नौकरी पेशा हैं इसलिए संस्कारों के सिंचन जैसा महत्तव पूर्ण कार्य उपेक्षित हो रहा है । आज धन को प्राथमिकता दी जा रही है। कदाचित माता पिता भौतिक सुख के संसाधन जुटा कर बच्चों को खुश रखने की कोशिश कर रहे है , इस भ्रांति मूलक तथ्य को जानना होगा , अच्छे संस्कार बच्चों मे छोड़ने का मानस बनाना होगा, इसके पहल माता पिता को करनी होगी । जो कुछ वह बच्चों से उम्मीद करते है पहले उन्हे कर के दिखाना होगा तब हम बच्चों को कुछ सिखा पाएंगे।
क्रमशः
अब आगे :-
आज की उद्देश्य हीन शिक्षा पद्धति बच्चों का सही मार्ग प्रशस्त नहीं करती । आज की युवा पीढ़ी शीघ्र पैसे कमाने के आसान तरीके अपना कर परिश्रम एवं धैर्य से दूर होती जा रही है। सात्विक प्रवृत्तियों के दमन से नैतिक आचरण का ह्रास होता जा रहा है । मर्यादा और अनुशासन का लोप हो रहा है । व्यक्ति का हृदय संकुचित हो गया है सोचने समझने की शक्ति का भी नाश हो रहा है । अन्तर्मन की बात सुनने की शक्ति के लिये उपयोगी ज्ञान की उपेक्षा हो रही है, सादगी का भी अभाव होता जा रहा है । आधुनिक संस्कृति अपनी जड़ें जमा रही है तथा कथित हाई सोसाइटी का का चलन बढ़ रहा है । इस चुनौती पूर्ण माहौल मे सुसंस्कारों प्रत्यारोपण कठिन कार्य हो गया है परंतु असंभव नही है । आज भी हमारी भारतीय संस्कृति मे कर्त्तव्यपरायणता, सहिष्णुता, उदारता आदि मानवीय मूल्य निहित हैं । आवश्यकता है तो बस, थोड़े से समन्वय की । हमारी संस्कृति क्या है ? इसे एक छोटे से उदाहरण से हम समझ सकते है ।
हमे भूख लगती है तो हम भोजन करते हैं - यह है प्रकृति। दूसरों का छीन कर खाते है तो - यह है विकृति। हम भोजन कर रहे हैं कोई भूखा व्यक्ति आता है, हम उसे पहले खिलाते हैं, फिर खुद खाते हैं - यह है संस्कृति। प्रकृति मे विकार आ जाने पर संस्कारों की आवश्यकता पड़ती है। संस्कार और संस्कृति एक ही धागे की दो गाँठे है। संस्कार के बीज बचपन मे डाले जाते है जो किशोरावस्था और इससे आगे फसल के रूप मे दिखाई देते है । संस्कृति की रक्षा युवावस्था मे की जाती है जो कि उचित संस्कार सिंचन से ही संभव है । जो व्यवहार अनुकरणीय और प्रेरक होता
है वही आचार विचार परंपरा बन कर संस्कृति कहलाती है ।
यदि सरल भाषा मे समझने का प्रयत्न करें तो व्यक्ति अनुशासित और सुंदर जीवन प्रणाली के विकास और दैनिक जीवन चर्या मेँ उसके समावेश कि प्रक्रिया को ही संस्कार कहा जा सकता है । दैनिक जीवन मे नियमितता लाना , व्यवहार मे सद्गुणों का समावेश करना एवं धैर्यपूर्वक हर स्थिति मे यथोचित धर्मयुक्त आचरण करना संस्कारित जीवन का द्योतक है । दुर्गुणों को हटा कर सद्गुणों का आह्वान करने का नाम संस्कार है । शुभ संस्कार, शुभ प्रकृति , शुभ रुचियाँ अच्छे कर्मों का फल हैं । जिस प्रकार पौष्टिक एवं स्वास्थ्य वर्धक भोजन से अच्छी सेहत बनती है ठीक उसी प्रकार अच्छे कर्मों के फल से अच्छे संस्कार बनते हैं । हम अन्य लोगों से जिस व्यवहार की अपेक्षा रखते है वैसा ही व्यवहार उनके प्रति करें यह धर्म है ।
सुसंस्कारों के लिए आवश्यक है - सुसंगति, अच्छी पाठ्य सामाग्री, ससाहित्य (अच्छा साहित्य ), उचित मार्गदर्शन एवं सहयोग । बच्चों के मन की कोमल सुंदर एवं अछूती भावनाओं की अभिवयक्ति काला द्वारा ही होती है। संगीत, कला, चित्रकला, मूर्ति कला, जिसमे भी बच्चे रुचि हो उस कला मे अभिभावक को सहयोगी बनना चाहिए इससे भी संस्कारों की समृद्धि होती है ।
माता पिता के द्वारा ध्यान देने योग्य बातें :-
1) बड़ों का आचरण ऐसा हो जिससे कोई गलत प्रभाव बच्चों पर न पड़े या वे ये न कहने पाएँ कि वे बड़े हैं वे भी ऐसा करते हैं तो मै क्यो नहीं ।
2) दैनिक जीवन नियमित एवं मर्यादित हो ।
3) व्यवहार मे सदगुणों का समावेश हो , सिर्फ भौतिक सुख सुविधा नहीं बल्कि बच्चों को चाहिए प्रेम , स्नेह, विश्वास, सकारात्मक भावना , संरक्षात्मक वातावरण ।
4) बच्चों से अधिक अपेक्षा न करें , बल्कि उन्हे प्रोत्साहन देते रहे ।
5) बच्चों के साथ पारिवारिक चर्चाए करें, परंतु नकारात्मक चर्चाए न करें इससे बच्चों के मन पर गलत असर पड़ता है, वे अपने मन मे गलत धारणा बना लेते है।
6) पारिवारिक कार्यक्रमों मे भारतीय पद्धति को प्रोत्साहन दें, जन्मदिन, शादी विवाह इत्यादि । इन कार्यक्रमों के दौरान आप अपने बच्चों को सभी का यथोचित मान सम्मान और सेवा का संस्कार सिखा सकते हैं।
7) घर के बड़े बुजुर्ग - दादी दादा , नाना नानी अपनी कहानियों , कहावतों और खुद के संस्मरणों के माध्यम से बड़ी बड़ी बातें तथा सफलता के कई सूत्र सिखा देते है जो किसी किताब मे नहीं होते ।
इस प्रकार हर माता पिता को ऐसा संकल्प लेना होगा कि उनके किसी आचरण का कुप्रभाव बच्चों पर न पड़े। बल्कि ऐसे संस्कारों का आदान करें जो उच्च कोटी के हों । भावी पीढ़ी को मनसा वाचा कर्मणा सशक्त बनाने हेतु उनमे शक्ति भक्ति और युक्ति का संगम करना है । प्रत्येक व्यक्ति अपना आँगन स्वच्छ रखना सीख ले तब दूसरों को भी प्रेरणा दे तो समूचे समाज मे बदलाव संभव हो सकेगा ।
बहुत अच्छा लेख है अन्नपूर्णा जी !
ReplyDeleteआपका शुक्रिया, अंकल ऐसे ही उत्साह वर्धन करते रहें ।
Deleteसार्थक लेख
ReplyDeletesahi kaha apne....
ReplyDeleteअच्छी रचना है
ReplyDeletehttps://www.facebook.com/samrastamunch?ref=tn_tnmn#!/
ReplyDeletewww.rameshkumarchaubey.blogspot.com
ReplyDeletegood anpurna ji
ReplyDeleteFine
ReplyDeletesakaratmak lekh....shiksha deta hua..
ReplyDeleteसार्थक सन्देश प्रसारित करता बहुत ही सुंदर एवँ शिक्षाप्रद आलेख ! इसे आज के हर युवा को आत्मसात करना चाहिये ! अत्युत्तम !
ReplyDeleteआप सबका हार्दिक आभार ।
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
ReplyDeleteTamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
Annapurnaji-- aap apne vichaar khube ache se vyakta karati hai.
ReplyDeleteVinnie
सच में एक सार्थक प्रस्तुति, आपको बहुत बहुत बधाई !!
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteआपका लेख बहुत अच्छा लगा.
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