“देश की धुरी है मजदूर”
खेतों और खलिहानों मे ,
झूमते पेड़ों के हरियाली मे ,
लहलहाती फसलों मेँ ,
बोरों मे बंद होने से लेकर ,
घरों तक है मजदूर ।
किलों और महलों की दीवारों मे,
लंबे फैले दल्लानों मे,
सुंदर बेलबूटे दार गलियारों मे ,
इस सीढ़ी से उस सीढ़ी तक ,
दूर तक फैले महल घरानों मे,
ईंटे से लेकर गारे तक ,
मिलता है मजदूर ।
मिलों की शान है ये,
उद्योगों की पहचान है ,
देश की जान है ये ,
शीर्ष पर विराजमान ,
सदजनों की पहचान है ,
हर मजे से दूर ये मजदूर ।
घनघोर घटा घिरी हो ,
या लगी हो झड़ी ,
कडकड़ाती ठंड हो या ,
चिलचिलाती धूप हो ,
हर मौसम मे सदाबहार ये मजदूर ।
जो , प्यार इसे मिलेगा ,
इज्जत से दो रोटी भी ,
मान और सुरक्षा ,
हक़ , चैन की मीठी नींद भी ,
करने को है तैयार ,
न्योछावर अपनी जान भी ,
ये मस्त मलंग मजदूर ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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आपकी पोस्ट को आज के चर्चा मंच पर भी लिंक किया गया है!
सूचनार्थ...सादर!
http://charchamanch.blogspot.in/2013/03/1190.html
बेह्तरीन अभिव्यक्ति .शुभकामनायें.
ReplyDeleteअति सुन्दर रचना.. मजदूर सही में धुरी है..
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