Thursday, 7 February 2013

बहू की व्यथा

जितना खिड़की से दिखता है  बस उतना सावन मेरा है ।
निर्वस्ना नींम खडी बाहर  जब धारोधार नहाती है ।
यह देख न जाने कब कैसे  पत्ती पत्ती बिछ जाती है ।
मन से जितना छू लेती हूँ  बस उतना ही धन मेरा है ॥

सिंगार किया गहने पहने  जिस दिन से घर मे उतरी हूँ ।
पायल मेरी बजती ही रहती है कमरों कमरों मे बिखरी हूँ ।
कमरे से चौके तक  फैला  बस उतना आँगन मेरा है ॥

डगमग पैरों से बूटों को हर रात खोलना मजबूरी ।
बिन बोले देह सौप देना  मन से हो कितनी भी दूरी ।
हैं जहां नहीं नीले निशां बस उतना ही तन मेरा है ॥


                 रचना -  श्री अवध बिहारी श्रीवास्तव  
                  
                प्रेषक - श्री अनिल त्रिवेदी
                                              

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