जितना खिड़की से दिखता है बस उतना सावन मेरा है ।
निर्वस्ना नींम खडी बाहर जब धारोधार नहाती है ।
यह देख न जाने कब कैसे पत्ती पत्ती बिछ जाती है ।
मन से जितना छू लेती हूँ बस उतना ही धन मेरा है ॥
सिंगार किया गहने पहने जिस दिन से घर मे उतरी हूँ ।
पायल मेरी बजती ही रहती है कमरों कमरों मे बिखरी हूँ ।
कमरे से चौके तक फैला बस उतना आँगन मेरा है ॥
डगमग पैरों से बूटों को हर रात खोलना मजबूरी ।
बिन बोले देह सौप देना मन से हो कितनी भी दूरी ।
हैं जहां नहीं नीले निशां बस उतना ही तन मेरा है ॥
रचना - श्री अवध बिहारी श्रीवास्तव
प्रेषक - श्री अनिल त्रिवेदी
निर्वस्ना नींम खडी बाहर जब धारोधार नहाती है ।
यह देख न जाने कब कैसे पत्ती पत्ती बिछ जाती है ।
मन से जितना छू लेती हूँ बस उतना ही धन मेरा है ॥
सिंगार किया गहने पहने जिस दिन से घर मे उतरी हूँ ।
पायल मेरी बजती ही रहती है कमरों कमरों मे बिखरी हूँ ।
कमरे से चौके तक फैला बस उतना आँगन मेरा है ॥
डगमग पैरों से बूटों को हर रात खोलना मजबूरी ।
बिन बोले देह सौप देना मन से हो कितनी भी दूरी ।
हैं जहां नहीं नीले निशां बस उतना ही तन मेरा है ॥
रचना - श्री अवध बिहारी श्रीवास्तव
प्रेषक - श्री अनिल त्रिवेदी
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