Friday, 16 November 2012

प्रेम रस सुधा रस भीने

बड़े ही आश्चर्य की बात है कि जिसे व्यक्ति जब चाहे तब कर सकता है , परन्तु जब वास्तव मे उसे करना चाहिए  तब वह  कार्य नहीं करता या यूं ही कभी कभी कर लेने मात्र से वह ये समझ बैठता है कि मैंने तो बहुत कुछ कर लिया है, अब मेरी गाथा होनी ही चाहिए , लोगों को मेरा गुणगान करना चाहिए , मेरा सम्मान करना ही चाहिए इसी तरह सोचते हुए मानव की अपेक्षाये जब बढ़ जाती है तभी आरंभ होता है क्लेश , ईर्ष्या , द्वेष , अहृं और झगड़े , एक दूसरे का अपमान ।  

  शायद ऐसे लोग ही सबसे ज्यादा प्रेम के भूखे होते हैं । मेरी नजर मे इन लोगो को ही सबसे ज्यादा प्रेम मिलना चाहिए । क्योंकि इससे उनके अहं की संतुष्टि  होती है । प्रेम के माध्यम से ही उनका हृदय परिवर्तन किया जा सकता है । यूं तो सारा का सारा जगत ही प्रेम का अभिलाषी है , ईश्वर स्वयम भी भक्तों के प्रेम के भूखे होते है , प्रेम से भक्त जो भी अर्पण करता है वे उसे खुशी से स्वीकार कर लेते है , और उसी के बन जाते है । यदि ऐसा नहीं होता तो श्री राम ने भीलनी के जूठे बेर नहीं खाये  होते ,श्री नारायण गज  की पुकार सुन कर नंगे पाँव नहीं दौड़े होते , श्री कृष्ण द्रौपदी की पुकार सुन कर भागे नहीं आते , गोपियों के प्रेम मे नाचे नहीं होते , अर्जुन के सारथी नहीं बने होते : ऐसे कई उदाहरण मिलते है जिससे ईश्वर का भक्त के प्रति प्रेम झलकता है ।

यहाँ तक कि पशु पक्षी भी प्रेम की भाषा समझते है । किसी  पशु को जब आप प्रेम से पुकारते  है वह दौड़ा  चला आता है । नन्हा शिशु भी प्रेम बखूबी समझता है , वह सामने खड़े व्यक्ति  की हर हरकत को गौर  से देखता है उसी के अनुसार प्रत्युत्तर देता है , जरा भी भाव गड़बड़ हुआ नहीं कि साहब लगे रोने । तुरंत सारा घर उनकी सेवा मे हाजिर हो जाता है ।

एक लड़की विवाह के पश्चात किसी नए परिवेश मे कैसे ढल जाती है , सिर्फ प्रेम के कारण । उसका अपने पति के प्रति अनुराग ही उसे नए घर मे , नए वातावरण मे , नए लोगों के साथ समंजस्य बनाने मे सहायक होता है । यदि पति का प्रेम नहीं होता तो ससुराल मे स्त्री का जीवन कुछ कठिन अवश्य हो जाता । उसी प्रेम के सहारे ही स्त्री उसके परिवार को अपना बना लेती है , और पुरुष  भी उसी प्रेम के वशीभूत उसके परिवार को अपना बना लेता है और यूं ही जीवन चलता रहता है ।

 प्रसिद्ध सूफी संत और कवि रहीम ने कहा है :-
 
 " रहिमन धागा प्रेम का ,  मत तोरेउ चटकाय । 
    तोरे  ते फिर ना जुरे , जुरे ते गांठ परि जाय ॥

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