Friday 16 November 2012

गतांक से आगे

नमो देवि विश्वेश्वरि प्राणनाथे सदानन्द रुपे  सुरानन्दे ते ।
नमो दानवान्तप्रदे मानवानामनेकार्थदे भक्तिगम्य स्वरुपे ॥

अर्थात् :- हे देवी विश्वेश्वरी ! हे प्राणों की स्वामिनी ! सदा आनन्द रूप  में रहने वाली तथा देवताओं को आनन्द प्रदान  करने वाली देवी आपको नमस्कार है । दानवों का अंत करने वाली , मनुष्यों की समस्त कामनाएँ पूर्ण करने वाली तथा भक्ति के द्वारा स्वयं का दर्शन कराने वाली हे देवी ! आपको नमस्कार है ।
                                                                   ( श्री मद् देवी भागवत् )
शुद्धिकरण की महिमा शास्त्रों में अलग अलग तरीके से वर्णित की गयी है । यहाँ दो तरह की शुद्धि का वर्णन हुआ है ।
1- शरीर की शुद्धि     2-  चित्त या मन की शुद्धि

शरीर की शुद्धि में स्नान का बड़ा महत्व है । शरीर का आलस्य , थकान , गंदगी इत्यादि दूर कर स्वच्छ वस्त्र धारण करने तथा आहार विहार में संयम बरतने से प्राप्त की जा सकती है । 

चित्त या मन  की शुद्धि के लिए मन को शांत रखना बहुत जरूरी है , इसके बिना साधना सफल नहीं होती । मन को वश में रखने के लिए ध्यान और योग का सहारा लिया जा सकता है , या केवल एक घंटा आँखें बंद करके अपने मन से बाते कीजिये , अपने शरीर के समस्त अंगों से बाते कीजिये जैसे  मेरे प्यारे हृदय तुम कैसे हो ? मेरी आँखें आप कैसे हैं ?

इस तरह से जब आप अपने ही शरीर से बात करते है तो आपका एक घंटा कैसे निकल जाएगा आपको पता ही नहीं चलेगा  । आप क्रोध , आवेश , लालच , वासना इत्यादि से स्वतः ही दूर होते जाएंगे । शुद्ध भोजन भी शारीरिक शुद्धि मे सहायक है , तामसी भोजन तामसी प्रवृत्तियों को ही बढ़ाता  है । अतः भोजन ताजा और शाकाहारी ही हो तो ही अच्छा है । इस प्रकार सात्विक रहते हुए बिना व्रत उपवास किए ही व्रत किया जा सकता है ।

शिव पुराण में शिव जी ने कहा है - जो व्यक्ति बिना किसी को नुकसान पहुंचाए उचित आहार विहार से अपना जीवन यापन करता वह मुझे बेहद प्रिय है । 

                                                           इति

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