शक्ति की
उपासना – कुछ तथ्य
रघुवंश
महाकाव्य का श्री गणेश करते हुये महाकवि कालिदास ने कहा है कि -
“वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तए ।
जगतः पितरौ वंदे पार्वती परमेश्वरौ ॥“
अर्थात् :- वाणी और उसके अर्थ मे जो शक्ति
समाहित है वह ही वागर्थ स्वरूपा है वही शक्ति तत्व समूचे ब्रम्हांड को संचालित
करता है वह ही जगत पिता पार्वतीपरमेश्वर श्री महादेव मे भी सुमुर्त है अर्थात् वह
ही भगवान शिव का
अर्धनारीश्वर रूप है उन महादेव को मै प्रणाम
करता हूँ ।
जब महिषासुर से युद्ध करते समय शक्ति ने
महाकाली का रूप धारण किया तब समस्त दानवों के विनाश के बाद भी माँ का क्रोध शांत
नहीं हुआ और देवताओं के साथ समूची सृष्टि की विनाश की बारी आ गई । तब घबरा कर देवताओं ने महादेव की शरण ली ।
महादेव को अनेकों तरह से प्रणाम करते हुए उनसे याचना की कि “ प्रभों आप ही माता के
क्रोध को शांत कर सकते है , अतः आप ही सृष्टि कि रक्षा कीजिये । तब शिव जी युद्ध भूमि
मे जाकर उसी स्थान भूमि पर ही लेट गए जहां महाकाली विचरण कर रही थी । महाकाली का
पाँव महादेव की छाती पर पड़ा , शिव जी को अपने पाँव के नीचे देख शक्ति का क्रोध जाता रहा
और उन्हे बड़ी ग्लानि हुई –‘ अहो ! क्रोध वश यह
मुझसे क्या हुआ ? वे तुरंत अपने सौम्य रूप मे प्रकट हुई और प्रभु से बहुत
बार क्षमा मागी , उन्हे अपने इस कृत्य पर बड़ा अफसोस हो रहा था । शिव जी ने
उन्हे समझाया की पार्वती तुमसे कोई गलती नहीं हुई है अपितु तुम और मै एक ही है
मुझमे और तुममे कोई अंतर नहीं है , माँ पार्वती तो जैसे अपराध बोध से व्यथित
हो रही थी अतः शिव जी ने उनको एक दर्पण दिया –‘ हे शिवे तुम इसमे अपना मुख देखो और
तुम्हें कैसा प्रतीत हुआ यह मुझे अवश्य बताना , मै अभी आता हूँ ।“ ऐसा कह शिव जी अन्तर
ध्यान हो गए । पार्वती ने जब उसमे
अपना मुख उस दर्पण मे देखा तो उन्हे वहाँ
शिव जी नजर आए , पार्वती जी ने पीछे पलट कर देखा वहाँ शिव जी थे ही नहीं , उन्होने दुबारा दर्पण मे देखा तो वहाँ
पार्वती जी स्वयं नजर आई , उन्हे बड़ा अचंभा हुआ , पुनः दर्पण देखने पर वहाँ शिव पार्वती के
साथ एकाकार नजर आये अर्थात शिव पार्वती का
अर्धनारीश्वर रूप दिखाई दिया । पार्वती जी को समझ आ गया कि वे दोनों ही मिलकर एक है
, शिव ही शक्ति है शक्ति ही शिव
है , शिव के बिना शक्ति अधूरी हैं
और शक्ति के बिना शिव अधूरे है , वे मिलकर ही पूर्ण है , तब जाकर उनकी ग्लानि दूर हो पाई ।
भगवत शंकराचार्य जी ने “सौन्दर्य लहरी “ की
रचना कर परम पावनी माँ जगदंबिका की आराधना की थी ।
“ शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुम् ,
नचेदैवं देवो न खलु कुशलः स्पन्दितुमपि ।
अत्स्त्वामाराध्यां हरिहर विरञ्चादिभिरपि ,
अर्थात :- भगवान शिव शक्ति से युक्त होकर ही श्रष्टि का संचालन
करने मे समर्थ हो पाते हैं । भगवती पराशक्ति से युक्त न होने पर उनमे स्पंदन तक संभव
नहीं है । श्रष्टि, स्थिति , संहार , संतुलन रखने
मे भी वे स्वयं अकेले समर्थ नहीं है क्योंकि प्रकृति के बिना पुरुष कल्पना मात्र है
। हे ! माँ जन्मांतरीय पुण्यों के उदय होने पर ही त्रिदेवों द्वारा पूजनीया आपकी स्तुति
, पूजन , वन्दन करने का अधिकारी बन कोई
व्यक्ति आपकी चरण रज प्राप्त कर सकता है ।
क्रमशः
गतांक से आगे –
इसी क्रम मे अन्नपूर्णा , लक्ष्मी , सरस्वती ,पृथ्वी , रात्रि , पीतांबरी , बगलामुखी , भगवती राज राजेश्वरी , त्रिपुरसुंदरी , एवं भगवती भुवनेश्वरी प्रभृति दर महाविद्याओं
की आराधना भी शक्ति उपासना के विविध रूप हैं । जिस प्रकार ऋग्वेद के ऋषि एक ओर सभी
देवॉ की पूजा को एक ही ब्रम्ह की सपर्या मानते
है – यथा :- सर्व देवं नमस्कारः केशवं प्रति गच्छति ।
उसी प्रकार दूसरी ओर सभी देवियों को भी वे तत्वतः एक ही मानते
है ।
देवी का कथन है – मैं रुद्रों एवं वसुओं के रूप मे विचरण करती
हूँ । मै ही आदित्यों एवं विश्वेदेवों के रूप मे निवास करती हूँ , मै मित्रवरून को धारण करती हूँ और मै ही अग्नि
एवं अश्विनी कुमारों की आधार भूमि हूँ । इस प्रकार सिद्ध होता है कि शक्ति तत्व के द्वारा ही यह ब्रम्हांड संचालित होता है
, शक्ति के अभाव मे न तो “ एकोअहम् बहु स्याम् “ सृदृश सिद्धांतों कि सार्थकता संभव है और न ही
महादेव क़ी महादिव्यता दैदीप्यमान हो पाती है । शक्ति उपासना ने आज के समय मे चाहे जो
रूप धारण किया हो किन्तु यथार्थ मे यह सृष्टि या प्रकृति की उपासना ही है । हम सीधे
मायनो मे यह नहीं कह पाते कि आज हमारा सृष्टि या प्रकृति के लिए गया उपवास है ।
उपासना के निमित्त शक्ति संचय
संयम , सात्विक आहार , नियमित परिश्रम , अहिंसा , माता – पिता तथा गुरु की सेवा , पवित्रता और ब्रम्ह्चर्य आदि के द्वारा शारीरिक शुद्धि रखते हुये सबसे बडी
आराधना कि जा सकती है ।
क्रमशः
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