रंगों का
त्योहार होली
बसंत पंचमी के आते ही प्रकृति में एक नवीन
परिवर्तन आने लगता है । दिन बड़े होने लगते है जाड़ा कम होने लगता है। पतझड़ शुरू हो
जाता है । माघ की पुर्णिमा पर होली का डांडा रोप दिया जाता है। आम्र मंजरियों पर
बौर आनी शुरू हो जाती है । भौरे गुनगुनाने लगते है, किन्ही वृक्षों पर नवीन
कोपलें आने लगती हैं, खेतों में चना मटर की बालियाँ पकने
लगती है जिसमें हवा के साथ साथ एक मधुर ध्वनि गुंजायमान होती है लगता है मानों
प्रकृति छोटे-छोटे घुंघरू पहन कर फाल्गुनी हवा की सुमधुर ताल पर नृत्य कर रही हो ।
मौसम रूमानी हो जाता है । प्रकृति में चारों तरफ मादकता का अहसास होने लगता है ।
होली पर्व के आते ही प्रकृति ही नहीं वरन जन-जन में नवीन उत्साह एवम उमंग की लहर
दिखाई देने लगती है ।
होली जहां एक ओर सामाजिक और धार्मिक
त्योहार है, वहीं यह रंगो का त्योहार भी है। देशव्यापी इस त्योहार में
जाति वर्ण इत्यादि का कोई स्थान नहीं है । इस अवसर पर फाल्गुनी पुर्णिमा की संध्या
पर होलिका पूजन किया जाता है । जिसमें लकड़ियाँ और गोबर के उपलों को इकट्ठा कर
उनमें आग जलायी जाती है, इसमें गेहूं की बाली , चने की बाली , गन्ने आदि को होली में हवन किया जाता
है तत्पश्चात अबीर गुलाल से पूजन कर दही गुझिया आदि का पकवान चढ़ाया जाता है । इसलिए
इसे नवान्नेष्टि यज्ञ पर्व भी कहा जाता है । खेत से लाकर होली में यज्ञ किए गए
अन्न का प्रसाद लेना आवश्यक होता है । होली मनाने के संबंध में कुछ मत प्रचिलित है
–
1- ऐसी मान्यता
है कि इस पर्व का संबंध काम दहन से है । भगवान शिव ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव
को भस्म कर दिया था ।
2- फाल्गुन शुक्ल
अष्टमी से पूर्णिमा पर्यन्त आठ दिनों तक होलाष्टक मनाया जाता है । भारत के कई
प्रदेशों में होलाष्टक शुरू होने पर पेड़ की शाखा काट कर उस पर रंग बिरंगे कपड़ों के
टुकड़े बांध कर उस टहनी को जमीन में गाड़ दिया जाता है उसी टहनी के नीचे होली का
त्योहार मनाया जाता है।
3- पुरातन कथा के
अनुसार हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को अग्नि में जलने का वरदान प्राप्त था ।
हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रहलाद, प्रभु नारायण का भक्त था जो अपने पिता के
शासकत्व को नहीं मानता था । जिससे क्रुद्ध होकर हिरण्यकश्यप ने होलिका को प्रह्लाद
को गोद में लेकर अग्नि में प्रवेश करने को कहा जिससे कि वह उसमें जलकर मर जाए ।
किन्तु प्रभु नारायण की भक्ति के प्रभाव से प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ और होलिका आग
में जलकर मर गयी । तभी से यह त्योहार होली के नाम से जाना जाता है ।
4- कहा जाता है
श्री कृष्ण, राधा रानी अनेक गोपिकाओं के साथ फाल्गुनी पुर्णिमा को हिंडोले
में झूलते हुये विभिन्न प्रकार के फूलों एम रंगों से रास खेलकर पूरी रात्री मनाते
थे इस लिए भी रंगो से खेल कर होली मनाने
की परंपरा प्रचलन में है ।
5- भविष्य पुराण
में कहा गया है कि एक बार नारद जी ने महाराज युधिष्ठिर से कहा – राजन! फाल्गुन की
पूर्णिमा को सभी लोगों को अभयदान देना चाहिए जिससे सम्पूर्ण प्रजा उल्लासित रहे।
बालक गाँव के बाहर लकड़ी व कंडे एकत्र करें तथा विधिवत होलिका पूजन करें। इसप्रकार
करने से सम्पूर्ण अनिष्ट दूर हो जाते हैं ।
होली सम्मिलन,
मित्रता, एकता का पर्व है। इस दिन सारे बैर भाव छोड़ कर सबसे
प्रेम और भाईचारे से मिलना चाहिए । एकता, सद्भावना एवं
सोल्लास का परिचय देना चाहिए। यही इस त्योहार का मूल उद्देश्य एवं संदेश है ।
लेखिका
डॉ0 अन्नपूर्णा बाजपेयी
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