Wednesday 1 October 2014

आगरा के समाचार पत्र पुष्प सवेरा मे मेरा आलेख प्रकाशित


पूरा आलेख पढ़िये - तिरस्कार का दंश झेलते बुजुर्ग
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बाल्यावस्था में भगवान बुद्ध एक कृशकाय वृद्ध की दयनीय दशा देखकर द्रवित हो उठे थे, उनका हृदय वितृष्णा से भर गया था. इसीलिए कुछ लोग वृद्धावस्था को जीवन का अभिाप मानते हैं. क्योंकि इस अवस्था तक आते-आते शरीर के सारे अंग शिथिल पड़ जाते हैं और इंसान की जिदंगी दूसरे की दया-कृपा पर निर्भर हो जाती है. परमुखापेक्षी बने उस इंसान को ऐसी दशा में जिंदा रहना भार लगता है और वह चाहता है कि उसे जिंदगी से निजात मिल जाए. इन हालात में व्यक्ति मानसिक तनावों से ग्रस्त रहता है. उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है या स्वभावत: वह क्रोधी हो जाता है और उसकी याददाश्त अक्सर कमजोर हो जाती है. कभी कभी तो वह बचपन के दिनों की याद में ऐसा खो जाता है कि उसे लगता है कि आखिर वह जिंदा क्यों है और किसके लिए जिंदा है।  वृद्धावस्था में सतांन की स्थिति का जायजा लें तो पता चलता है कि माता-पिता के वृद्धावस्था तक पहुंचते-पहुंचते संतान अक्सर उनसे छुटकारा पा लेना चाहती है. वह मां-बाप को बोझ और अपने ऐशो आराम भरी की जिदंगी की सबसे बड़ी बाधा समझते हैं. ऐसे बच्चों को कतई यह अहसास नहीं होता कि वह उन्हीं मां-बाप की बदौलत इस ऐशो आराम की जिंदगी जीने के काबिल हुए हैं।
जाने माने समाजशास्त्री सुनील धर कहते हैं, "ज्यादातर मामलों में कमाऊ बच्चे अपने बुजुर्ग माता पिता को घर से अलग कर देते हैं और सप्ताह में एक बार उनसे मिलने जाते हैं." वह कहते हैं कि ऐसे बुजुर्गों की स्थिति फिर भी कुछ बेहतर है. लेकिन घर बेटे बहू या फिर बेटी दामाद के साथ रहने वाले बुजुर्गों की हालत दयनीय है. ज्यादातर मामलों में संपत्ति का मालिक होने के बावजूद उनको रोजाना कटुक्तियां झेलनी पड़ती हैं. एक अन्य समाजशास्त्री मनोज गोयल कहते हैं, "टूटते संयुक्त परिवारों ने बुजुर्गों की बदहाली में अहम भूमिका निभाई है. अब एकल परिवारों में लोगों को बुजुर्गों की रोक-टोक पसंद नहीं आती. इस वजह से उन लोगों को अप्रिय स्थिति का सामना करना पड़ता है."
विशेषज्ञों का कहना है कि इस सामाजिक समस्या को दूर करने के लिए सरकार के साथ साथ गैरसरकारी संगठनों को भी आगे आना होगा. उसी स्थिति में बुजुर्गों को समाज और परिवार में वह सम्मान मिल सकेगा जिसके वह हकदार है, सिमटते पारिवारिक दायरे में बुजुर्गो की क्या स्थिति है विश्व बुजुर्ग अपमान जागरूकता दिवस पर पूर्वी दिल्ली में बुजुर्गो ने पदयात्रा निकाली। इस दौरान वरिष्ठ नागरिक हाथ में कैंडल और तख्तियां लेकर चल रहे थे। बुजुर्गो की पदयात्रा रविवार शाम प्रीत विहार पेट्रोल पंप से लेकर निमार्ण विहार स्थित पूर्वा सांस्कृतिक केंद्र आकर समाप्त हुई। इस शांतिपूर्ण पदयात्रा में काफी संख्या में बुजुर्गो ने हिस्सा लिया। पूर्वी दिल्ली वरिष्ठ नागरिक समिति के पीएन कौल ने बताया कि मौजूदा परिवेश बुजुर्गो के लिए पीड़ादायक है। वरिष्ठ नागरिकों को उचित सम्मान नहीं मिल रहा है, जिसके सभी हकदार हैं। बुजुर्ग अशोक कुमार जैन ने कहा कि आज की युवा पीढ़ी के पास अपने माता-पिता का दुख-दर्द सुनने का समय नहीं है। वहीं युवाओं ने भारतीय संस्कृति में बुजुर्गो का सम्मान करने की परंपरा को भी दरकिनार कर दिया है, जो गंभीर चिंता का विषय है। एक अन्य वरिष्ठ नागरिक बताया कि उन्होंने अपनी वसीयत बेटों के नाम कर दी, जिसके बाद से उनके बेटों ने उनकी फिक्र करना ही छोड़ दिया।
पदयात्रा में शामिल बुजुर्ग सरकार से भी नाराज दिखे। इनकी शिकायत है कि समाज के साथ ही सरकार ने भी उनके साथ हो रहे अपमान की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। वरिष्ठ नागरिकों की मांग है कि सरकार उनके सम्मान की रक्षा के लिए ठोस कानून बनाए।
कहने को तो हमारे बुजुर्ग प्यार और सम्मान के हकदार हैं लेकिन असलियत में पूरी तरह उपेक्षित हैं.
बीते दिनों रिसर्च एंड एडवोकेसी सेंटर ऑफ एजवेल फाउंडेशन के एक सर्वेक्षण में खुलासा हुआ है कि हमारी युवा पीढ़ी न केवल वरिष्ठजनों के प्रति लापरवाह है, बल्कि उनकी समस्याओं के प्रति जागरूक भी नहीं है. वह पड़ोस के बुजुर्गों के सम्मान में तो तत्पर दिखती है लेकिन अपने घर के बुजुर्गों की उपेक्षा करती है, उन्हें नजरअंदाज करती है. सर्वेक्षण के अनुसार 59.3 फीसद लोगों का मानना है कि समाज व घर में बुजुर्गों के साथ व्यवहार में विरोधाभास है. केवल 14 फीसद का मानना है कि घर-बाहर, दोनों जगह बुजुर्गों की हालत में कोई अंतर नहीं है जबकि 25 फीसद मानते हैं कि घर में बुजुर्गों का सम्मान खत्म हो गया है.
यह दीगर है कि कुछ फीसद की राय में घर में बुजुर्गों को सम्मान दिया जाता है. पर असलियत में परिवार के युवा घर के बुजुर्गों को हल्के में लेते हैं और बुजुर्ग उन पर अधिकार तक नहीं जताना चाहते. वह उस उम्र में भी सक्रिय रहना चाहते हैं. सर्वेक्षण की रपट की मानें तो 50 फीसद लोग मानते हैं कि कार्यस्थलों पर भी उनके साथ भेदभाव होता है जिसके चलते उनकी पदोन्नति प्रभावित होती है. यानी बुजुर्ग हर जगह उपेक्षित हैं और युवा पीढ़ी उन्हें बेकार मानने लगी है. वह नहीं सोचती कि उनके अनुभव उनके लिए बहुमूल्य हैं जो उनके जीवन में पग-पग पर महत्वपूर्ण योगदान देते हैं.
समाज में आज बुजुर्गों को संरक्षण देना सबसे बड़ा सवाल है जिसका आज सर्वथा अभाव दिखता है. देश के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री भले उनकी तादाद आठ करोड़ के आसपास बतायें जबकि संयुक्त राष्ट्र की विश्व जनसंख्या रिपोर्ट के अनुसार विश्व में 60 साल की उम्र पार कर चुके लोगों की तादाद 84.10 करोड़ है जबकि भारत में बुजुर्ग आबादी नौ करोड़ के करीब है जो तेजी से बढ़ रही है. माना जा रहा है कि बुजुर्गों की यह तादाद 2026 के करीब 18 करोड़ के पास पहुंच जाएगी. सच है कि इतनी बड़ी तादाद के हितों को नजर अंदाज करना सरकार के लिए आसान नहीं होगा. सच है कि बुजुर्गों के लिए सरकारी प्रयासों से ही कुछ होने वाला नहीं है. समाज और परिवार को भी अपनी जिम्मेवारी समझनी होगी. क्योंकि बुजुर्गों को परिवार में संरक्षण देने वाला कानून बहुत खामियों वाला है जिसे समझते हुए उसमें सुधार करना होगा.
तभी कुछ सार्थक परिणाम की आशा की जा सकती है. हमारे यहां मां-बाप अपने बेटे-बेटियों की शिकायत पुलिस में करने की मानसिकता कतई नहीं रखते और बेटों-बहुओं के अमानवीय बर्ताव सहते हुए बदहाली-तंगहाली में जीते हुए मर जाते हैं. कभी-कभी अदालत का दखल भी इसमें कुछ नहीं कर पाता. वृद्धावस्था जीवन का अंतिम पड़ाव है. इस दौर में व्यक्ति का जीवन सम्मान सहित और कुशलता पूर्वक कट जाए, यह बहुत बड़ी बात है. अनेक बुजुर्गों को बुढ़ापे में दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं. उन्हें सर छिपाने के लिए छत, खाने को दो जून रोटी और तन ढकने को कपड़ा तक मयस्सर नहीं होता. यह समस्या तो आज समूचे देश की है.
बाल्यावस्था में भगवान बुद्ध एक कृशकाय वृद्ध की दयनीय दशा देखकर द्रवित हो उठे थे, उनका हृदय वितृष्णा से भर गया था. इसीलिए कुछ लोग वृद्धावस्था को जीवन का अभिाप मानते हैं. क्योंकि इस अवस्था तक आते-आते शरीर के सारे अंग शिथिल पड़ जाते हैं और इंसान की जिदंगी दूसरे की दया-कृपा पर निर्भर हो जाती है. परमुखापेक्षी बने उस इंसान को ऐसी दशा में जिंदा रहना भार लगता है और वह चाहता है कि उसे जिंदगी से निजात मिल जाए. इन हालात में व्यक्ति मानसिक तनावों से ग्रस्त रहता है. उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है या स्वभावत: वह क्रोधी हो जाता है और उसकी याददाश्त अक्सर कमजोर हो जाती है. कभी कभी तो वह बचपन के दिनों की याद में ऐसा खो जाता है कि उसे लगता है कि आखिर वह जिंदा क्यों है और किसके लिए जिंदा है.
वृद्धावस्था में सतांन की स्थिति का जायजा लें तो पता चलता है कि माता-पिता के वृद्धावस्था तक पहुंचते-पहुंचते संतान अक्सर उनसे छुटकारा पा लेना चाहती है. वह मां-बाप को बोझ और अपने ऐशो आराम भरी की जिदंगी की सबसे बड़ी बाधा समझते हैं. ऐसे बच्चों को कतई यह अहसास नहीं होता कि वह उन्हीं मां-बाप की बदौलत इस ऐशो आराम की जिंदगी जीने के काबिल हुए हैं.
यही मां-बाप बच्चों की बचपन की जरूरतों से लेकर करियर निर्माण और शादी विवाह की जिम्मेदारी वहन करते हुए अपनी जरूरतों को नजरअंदाज कर देते हैं. यह सोचकर कि बुढ़ापे का सहारा बच्चे ही तो उनकी देखभाल करेंगे. लेकिन समय के साथ सारा गणित उलट जाता है. बेटे के विवाह के बाद तो माता-पिता की स्थिति और भी विचारणीय हो जाती है. अपवादों को छोड़ दें तो ज्यादातर बहुएं घर के बुजुर्गों की उपेक्षा और तिरस्कार में कोई कोर-कसर नहीं छोड़तीं. कभी-कभी धन-सम्पत्ति के बंटवारे में भी बड़े-बूढ़ों की काफी छीछालेदार होती है. आपसी मन-मुटाव और कलह इस सीमा तक बढ़ जाता है कि बेटे-बहुओं के साथ उनका रहना दूभर हो जाता है.
बुजुर्गों और बहू-बेटों में तारतम्य न बैठ पाने की एक बड़ी वजह पश्चिमी सभ्यता का बढ़ता प्रभाव भी है. पश्चिम का अंधानुकरण बड़े-बूढ़ों को रास नहीं आता और बहू-बेटों को बुजुर्गों का यह दखल नहीं सुहाता. संतान द्वारा उनके आदेश का अनुपालन न होना, बुजुर्गों को अपमान प्रतीत होता है. अक्सर सेवा से अवकाश लेने के बाद व्यक्ति का दैनिक क्रम अव्यवस्थित हो जाता है और वह अपने को बेकार महसूस करता है. ऐसे में उसको अपने को ज्यादा से ज्यादा समय व्यस्त रखने का प्रयास करना चाहिए.
इसका अहसास हर युवा को होना चाहिए कि वृद्धावस्था हमारे जीवन का आखिरी चरण है और इस स्थिति में सभी को पहुंचना है. उनके अनुभव हमारे लिए अमूल्य धरोहर हैं जिन्हें संजोकर रखना हमारा कर्त्तव्य है. इनसे सीख लेकर हम कामयाबी हासिल कर सकते हैं. घर-परिवार के साथ सरकार का भी दायित्व है कि वह वृद्धाश्रम, वृद्धावस्था पेंशन और उनके पुनर्वास की योजनाएं आदि लागू कर बुजुर्गों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करें. समाज की थाती वृद्धजन अपने को असहाय उपेक्षित महसूस न करें, यह घर-परिवार, समाज व सरकार सबका प्रयास होना चाहिए।

मेरी आने वाली पुस्तक हमारे बुजुर्ग अकेले क्यों?’ के कुछ अंश ।
 

प्रेषिका :- अन्नपूर्णा बाजपेई


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