तम की स्याही से लिखती नित्य नव प्रभात हूँ ।
उजियारा फैलाने को रोज नया सूरज मै लाती हूँ ,
जो मूक हो जीते है उनकी जुबान मै बन जाती हूँ ।
पढा लिखा कर सम्मान की अलख मै जगाती हूँ ,
झूठे हो चाहे जितने पर सच्चाई की धार लगाती हूँ ।
अज्ञानता के घोर तमस को समूल उखाड़ भगाती हूँ ,
होती जिसके हाथ मै (कलम) ज्ञान भंडार लगाती हूँ
पैनी कितनी भी हो तलवारें पर भीत नहीं मै खाती हूँ
परचम सच्चाई का नित्य नया लहराती हूँ
टेकते अँगूठों को मुड़ना मै बतलाती हूँ
अंगूठा टेको को अक्सर लिखना सिखलाती हूँ ।
फिर क्यों ऐसा है कि आज अकेली मै रोती हूँ ?
सच को सच और झूठ को झूठ कह न पाती हूँ ।
................अन्नपूर्णा बाजपेई
No comments:
Post a Comment