Saturday 21 September 2013

जीवन गाथा - स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी - श्री नारायण सिंह जसवाल


जीवन गाथा – आजादी के मूक योद्धा श्री नारायण सिंह जसवाल
आज पाश्चात्य संस्कृति मे रच बस रहे युवाओं के लिए आजादी का मतलब सिर्फ अपनी आजादी है। वे इस बात से बिलकुल बेखबर हैं की आज यदि हम आजाद है तो उसके पीछे न जाने कितने महान लोगों की शहादत जुड़ी हुई है । कई नाम जिन्हे  हम जानते है वे नेतृत्व कर रहे थे उनही को  नाम मिल गया ,  जिनको  आज भूले भटके याद कर लिया जाता है । कुछ नाम ऐसे भी है जिनके विषय मे हम जानते तक नहीं है जो जंगे आजादी के महानायक न सही परंतु नायक अवश्य है । हमे हर उस हिंदुस्तानी की शहादत को भूलना नहीं चाहिए जिसने हमे स्वतंत्र करवाने के लिए अपने जीवन की हर खुशी को दर किनार कर केवल देश और देश वासियों के लिए सोचा । यदि वे केवल अपने लिए सोचते तो करोड़ों हाथ जो उन महानायकों के साथ जुड़े वे न जुडते । अपने सुख को छोड़ कर देशवासियों के सुखों के लिए न्योछावर हुये वे लोग आज चिलमन मे रोशनी भी नहीं पाते । आज कहाँ गई वो देश भक्ति वो देश प्रेम जिसे हम सलाम करते थे ।
मेरी एक सलामी ऐसे ही मूक योद्धा के नाम ।
मुझे उनके पुत्र श्री यशपाल सिंह जी से इनके विषय मे पता चला ।  उनसे हुई बातचीत के अंश :-  वे बीते दिनों को याद करके कही खो से जाते है । उनके मुंह से केवल आह निकलती है । वे कहते है –“ आजादी की लड़ाई मे किसी ने अपना बेटा खोया ,किसी ने अपना पति , भाइयों की कलाइयों पर राखी बांधने के लिए राह ताकती हजारों बहनों की आँखें पथरा सी गयी परंतु उनके भाई लौट कर नहीं आए । सबसे बड़ी बात ये है राष्ट्र ने अपने वीर सपूतों को खोया । आजादी की बलिवेदी पर हजारों वीर जवान ऐसे हुये जो चुपचाप अपना धर्म निभा कर सदा के लिए हमसे दूर चले गए । उनका कहीं  कोई नाम नहीं है,यहाँ तक की यदि आप सरदार भगत सिंह जी के घर भी जाकर देखें तो पाएंगी कि इस योद्धा ने कितनी छोटी उम्र मे  देश कि खातिर जन न्योछावर कर दी लेकिन उनके घर वालों को भी पूछने वाला कोई नहीं है । भारत का स्वतन्त्रता संग्राम अपने आप मे अनेक कहानियों के साथ अनेक अनजाने चेहरों को अपने गर्भ मे छुपाए हुए है उनकी स्वतन्त्रता संग्राम मे बेशक चर्चा न हुई हो और आज की पीढ़ी उन्हे न जानती हो तो भी देश के लिए  उनके द्वारा  किए गए योगदान को भुलाया नहीं जा सकता ।”
श्री नारायण सिंह जसवाल जी का नाम उनके पैतृक गाँव नाहन के लिए अपरिचित नहीं है । हरियाणा और हिमाचल की सीमा पर बसा है त्रिलोक पुर नामक कस्बा । यहीं रहा करते थे आजाद हिन्द फौज के लेफ्टिनेंट पद से सेवा निवृत्त श्री जसवाल जी । इनके पिता श्री भोल्लर सिंह जी नाहन कैंटोनमेंट की छोटी परेड ग्राउंड के समीप बने एक बंगले मे स्टेट फोर्सिज मे सूबेदार पद पर कार्य रत थे । उस समय राजाओ का राज्य चलता था । सूबेदार भोल्लर सिंह जी नाहन के राजा की सेना मे नौकरी करते थे । उस समय अंग्रेजों का भी शासन था । 26 फरवरी 1911 को सूबेदार भोल्लर सिंह जी के घर एक ओजस्वी बालक ने जन्म लिया । जन्म के कुछ समय बाद माता का देहांत हो गया । ये अपने माता पिता की इकलौती संतान रहे । इनकी प्रारम्भिक शिक्षा दीक्षा त्रिलोक पुर मे ही हुई । हायर एजुकेशन के लिए इनके पास न पैसे थे न ही इनका साथ देने वाला कोई । इनके पिता भी चल बसे थे , अनाथों की तरह जीवन बसर करते हुए कुछ समय गुजारा । फिर  इंडियन आर्मी की डोगरा रेजीमेन्ट मे बतौर सैनिक भर्ती हो गए । और 1934 से उनके फौजी जीवन की शुरुआत हुई । अंग्रेज़ो के कट्टर शत्रु होने के बावजूद ये अपना कर्तव्य भली प्रकार से निभाते रहे ।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों से लड़ते हुये ये जापान की सेना द्वारा युद्ध बंदी बना लिए गए । सिंघापुर मे रह रहे डेढ़ लाख कैदियों मे से अनेकों के हृदय मे अपने देश की आजादी का विचार उन्हे व्यथित कर रहा था । ऐसे समय मे जर्मनी से नेता जी सुभाष चंद्र बॉस को वहाँ बुलाने का निर्णय लिया गया । नेता जी टोकियो पहुंचे और जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री शी तोजो उन्हे लेकर सिंघापुर आए । यह वाकया 1942 का है वहाँ लगभग एक लाख नागरिकों की मौजूदगी मे यह घोषणा की गयी कि अब अंग्रेजों से मुक्ति पाने के लिए हमे मिलकर लड़ना है । उनके अनुसार नेता जी ने कहा था कि – “हमे ब्रिटेन तथा अमरीका के खिलाफ तो लड़ना ही है साथ ही इनके दिल मे (जापानी प्रधानमंत्री की ओर इशारा करते हुए ) यदि बेईमानी आई तो इनसे भी लड़ने के लिए तैयार रहना है ।“ इसके बाद आजाद हिन्द फौज संगठित हुई और लड़ते हुए दो वर्षों अर्थात 1945 मे कलकत्ता पहुंची ।
क्रमशः

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