Wednesday, 27 February 2013

नक्कार खाना

बूम बूम ढ़म ढ़म आती आवाज ,
नक्कार खाने से ,
ऐसे मे तूती की आवाज सुनने की ,
फुर्सत किसे और कहाँ।

ध्वस्त अर्थ व्यवस्था ,
क्षीण प्रशासन ,
जरजर हो चुका किला ,
ढहती दिवारे ,
चरचराती कुर्सी के पाये ,
देखने की फुर्सत किसे और कहाँ।

भूखी जनता , नंगे बच्चे ,
भोली जनता ,अनपढ़ बच्चे,
लुटती , तार तार होती ,
अस्मिता धारिणी की ,
चीखती माँ , बिलखते लोग ,
सुनने की फुर्सत किसे और कहाँ ।

मुंह चिढाती मंहगाई ,
निवाला तक छीनते नेता ,
हरदम सोते न
लेते अंगड़ाई भी ,
जगाने की फुर्सत किसे और कहाँ ।

न कभी जागे हैं,
न कभी जगेंगे ,
हरदम सोते आए हैं ,
हरदम सोते ही रहेंगे
न सुनी है न सुनेंगे ,
न बोले हैं न बोलेंगे ,
न देखा है न देखेंगे ,
बस मांगेगे प्यार से ,
राज करेंगे ऐश से ,
तिजोरियाँ भरी जाएंगी ,
जनता के लहू से ,
अपनों की भी आवाज ,
सुनने की फुर्सत उन्हे ,
कब और कहाँ । 

नक्कार खाने मे तूती 
की कौन सुने ,
कब और कहाँ ।



1 comment:

  1. बहुत सुन्दर रचना | आभार

    आप भी तशरीफ़ लायें
    Tamasha-E-Zindagi
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