“भारतीय
नारी कभी भी कृपा की पात्र नहीं थी, वह सदैव से समानता की अधिकारी रही हैं।” -भारत कोकिला सरोजिनी नायडू ।
अल्टेकर के अनुसार प्राचीन भारत में वैदिक काल
में स्त्रियों की स्थिति समाज और परिवार में उच्च थी, परन्तु
पश्चातवर्ती काल में कई कारणों से उसकी स्थिति में ह्रास होता गया. परिवार के भीतर
नारी की स्थिति में अवनति का प्रमुख कारण अल्टेकर अनार्य स्त्रियों का प्रवेश
मानते हैं. वे नारी को संपत्ति का अधिकार न देने, नारी को शासन के
पदों से दूर रखने, आर्यों द्वारा पुत्रोत्पत्ति की कामना करने आदि
के पीछे के कारणों को जानने का प्रयास करते हैं तथा उन्होंने कई बातों का
स्पष्टीकरण भी दिया है. उदाहरण के लिये उनके अनुसार महिलाओं को सम्पत्ति का अधिकार
न देने का कारण यह है कि उनमें लड़ाकू क्षमता का अभाव होता है, जो
कि सम्पत्ति की रक्षा के लिये आवश्यक होता है. इस प्रकार अल्टेकर ने उन अनेक बातों
में भारतीय संस्कृति का पक्ष लिया है, जिसके लिये हमारी संस्कृति की आलोचना
की जाती है. उन्होंने अपनी पुस्तक के प्रथम संस्करण की भूमिका में स्वयं यह
स्वीकार किया है कि निष्पक्ष रहने के प्रयासों के पश्चात् भी वे कहीं-कहीं
प्राचीन संस्कृति के पक्ष में हो गये हैं.* प्रसिद्ध राष्ट्रवादी इतिहासकार आर.
सी. दत्त ने भी अल्तेकर के दृष्टिकोण का समर्थन किया है उनके अनुसार,
"महिलाओं को पूरी तरह अलग-अलग रखना और उन पर पाबन्दियाँ लगाना हिन्दू
परम्परा नहीं थी. मुसलमानों के आने तक यह बातें बिल्कुल अजनबी थीं । महिलाओं को
ऐसी श्रेष्ठ स्थिति हिन्दुओं के अलावा और किसी प्राचीन राष्ट्र में नहीं दी गयी थी
। मुक्ति के द्वार की तलाश आज भी जारी है वह कभी मुक्त नहीं हो सकी रुढियों से, परम्पराओं
से, सामाजिक विसंगतियों से, अपनी ही कारा में कैद ,भारत
की नारी आज भी अपने जीवन संघर्षों की लड़ाई लड़ रही है। सदियों की गुलामी से
उत्पीडित, प्रताड़ित ,रुढियों
की श्रृंखलाओं में बंदी -उसकी आँखों ने एक सपना जरुर देखा था , जब देश आजाद होगा-अपनी धरती ,अपना आकाश अपने सामाजिक
दायरों में वह भी सम्मानित होगी, उसके भी सपनों ,उम्मीदों को नए
पंख मिलेंगे, पर उनका
यह सपना कभी साकार नहीं हो पाया, अपने अधूरे सपनो के सच होने की उम्मीद
लिए महिलाएं देश की स्वतंत्रता के संघर्ष में भी भागीदार बन जूझती रही सामाजिक ,राजनीतिक
,चुनौतियों से , अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए बलिवेदी
पर चढ़ मृत्यु को भी गले लगाया पर हाय रे
विधाता !! यहाँ भी वह हारी ।
नारियों को सदैव सीता,
सावित्री के मिथकों को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया और उन्हे उन काल्पनिक
नियमावलियों के सहारे ही आजतक आगे बढ्ने दिया गया । और उन्हे मौन मूक आज्ञाकारिता
के साँचे मे फिट किया गया । जबकि
पुरा-युग मे भी माता सीता को कहाँ बख्शा गया था । अहिल्या के सतीत्व पर भी प्रश्न
चिन्ह लगा ही था । द्रौपदी का चीर हरण भी हुआ था । स्वयं महिलाएं ही कुछ आदर्श मिथकीय देवी चरितों
को जीने की सलाह देती हैं क्योंकि ऐसा करने से स्त्री का जीवन सफल होता है और
पुरुष के आगे सदा ही सिर झुका कर चलने से ही स्त्री का मान बढ़ता है । वे न तो
स्वयं कभी गार्गी , जबाला , मैत्रेयी , घोषा के चरितों जी सकीं और न ही नई पीढ़ी को जीने
की सलाह ही दे सकीं । इन चरितों को जीने की सलाह स्त्री को इसलिए नहीं दी जाती थी
कि वह अपनी स्वतंत्र रूप से पहचान बना सकती । स्वयं से जुड़े प्रश्न कर सकती ।
आज देश आजाद तो है पर राजनीतिक स्तर पर ही आजाद हुआ
है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार भी मिला पर अधूरा नियमो –कानूनों में
लिपटा हुआ , हजारों
लाखों सपनो के बीच नारी मुक्ति का सपना भी सच होने की आशा जागी थी । शांति घोष ,दुर्गा भाभी ,अजीजन
बाई ,इंदिरा ,कमला नेहरु ,जैसे अनगिनत नाम
जिनमे शामिल थे , किन्तु नारी मुक्ति के सपने कभी साकार नहीं हो पाये , उनकी स्थिति में कोई
परिवर्तन नहीं आया । वे पहले भी सामाजिक वर्जनाओं के भंवर में कैद थी , आज भी हैं । पहले सती प्रथा के नाम पर पति
के साथ जला दिए जाने की क्रूर
परंपरा थी , आज
भी महिलाएं जलाई जाती हैं किन्तु
कभी दहेज़ के नाम पर ,
तो
कभी पुरुष प्रधान सामाजिक
प्रताड़ना का शिकार होकर, बालिका विवाह की अमानवीय
प्रथा में कितनी ही नन्हीं मासूम
बालिकाएं बलिदान हो जाती थीं । आज भी अबोध ,मासूम ,नाबालिग
बच्चियां दुष्कर्म और दुर्व्यवहार का शिकार होती हैं , बेमौत मारी जाती हैं ,भ्रूण
हत्याएं भी इसी क्रूर , नृशंस ,गुलाम मानसिकता का सजीव उदाहरण हैं।
कभी महिलाओं ने सोचा था की जब उन्हें आजादी मिलेगी उनकी भी आवाज सुनी जाएगी ,वे
भी विकास की मुख्य धारा में शामिल होकर अपनी मंजिल प्राप्त कर पाएंगीं ,पर
आज वे अपने ही देश में सुरक्षित नहीं हैं ,पहले भी घर व् समाज की चार
दीवारों में आकुल -व्याकुल छटपटाती थी , और आज भी स्वतंत्रता के 68 वर्षों
के बाद भी वे चार दीवारों में बंदी रहने
को विवश हैं क्योंकि बाहर की दुनियां उनके लिए निरापद नहीं है , यह
कैसी बिडम्बना है !-कैसी स्वतंत्रता है !-जो मिल
कर भी कभी फलीभूत नहीं हो सकी ।
समाज के एक बहुत बड़े
जन-भाग मे महिलाओं के प्रति अस्वस्थ और रुग्ण मानसिकता क्रिया शील थी ,
जो अब भी पारंपरिक और पिछड़े वर्ग के लोगो मे क्रियाशील है कि महिलाओं को बाहर नहीं
निकालना चाहिए ,इसके पीछे लोगों की सोच होती है कि घर के बाहर
निकलने वाली स्त्रियाँ पराए पुरुषों के बीच उठती बैठती है,
उनसे बातचीत करती है, इसलिए वे चरित्रहीन होती है । उन्हे कैसे वस्त्र
पहनने चाहिए ? कैसे रहना चाहिए? इत्यादि प्रश्न आज भी
महिलाओं के जीवन को घायल करते है ।
धर्म वीर भारती जी ने लिखा
है –“मानव की सदियों पुरानी मान्यताएं ढहती जा रही हैं ,
उनकी चेतना के आगे नए नए क्षितिज हर साल खुलते चले जा रहे है । तथापि पुरानी
मान्यताएं आज भी चिपकी हुई है और नारियाँ आज भी शारीरिक और मानसिक यंत्रणा भोग रही
है ।“ इसी संबंध मे हजारी प्रसाद द्विवेदी जी भारतीय समाज के विषय मे लिखते हैं –“
दीर्घकाल से भारत इस बात मे विश्वास करता रहा है कि किए का फल जरूर भोगना पड़ता है ,
इस जन्म मे नहीं तो अगले जन्म मे । इस जन्म मे मनुष्य ने जो कुछ भी पाया वह उसके
पूर्व जन्मों के कर्मों का परिणाम है । इस जन्म मे जो कुछ भी करेगा अगले जन्म मे
उसका परिणाम उसे भुगतना ही पड़ेगा ।“ इतनी संकुचित सामाजिक व्यवस्थाओं के होते हुये
किसी विद्रोह की अवश्यकता नहीं पड़ती ।
आज परिवर्तन कि लहर चल पड़ी
है । नारी ने स्वयं को जानने की दिशा मे महत्तवपूर्ण कदम बढ़ाए हैं । अपनी व्यवस्था
बनाने की दिशा मे भी आगे बढ़ी है । किन्तु किसी भी सामाजिक व्यवस्था की एक कसौटी यह
भी होती है कि इसके अंतर्गत मनुष्य के बहु आयामी विकास को किस सीमा तक उचित
वातावरण और सुविधाएं मिलती हैं । जो व्यवस्था मनुष्य के विकास को या उसकी संभावनाओ
को रोकती है किसी भी धरातल पर वह व्यवस्था सही नहीं हो सकती । कहना न होगा विश्व
कि आबादी का आधा हिस्सा यानि नारी संसार अपने को जानने की दिशा मे अग्रसर हुआ है ।
उसने वर्जनाओं के बंधों को तोड़ना शुरू कर दिया है । पुरुषों के साथ कदम से कदम
मिलाती नारी आज ज्यादा ही मजबूत ,कर्मठ और आत्म विश्वास से भरी दिखाई देती है ।
इसी संबंध मे एक मेरी ही
रचना का एक अंश देखिये .........
सोचती हूँ यदि
वर्जनाओं के
बंध सब तोड़ दूँ
व्यंजनाओं की
सुध भी छोड़ दूँ
तब कर उठेंगे
नर्तन, पाँव मेरे
॥
................अन्नपूर्णा बाजपेई 'अंजु'
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-10-2016) के चर्चा मंच "कुछ बातें आज के हालात पर" (चर्चा अंक-2483) पर भी होगी!
ReplyDeleteमहात्मा गान्धी और पं. लालबहादुर शास्त्री की जयन्ती की बधायी।
साथ ही शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाएँ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
http://ajmernama.com/guest-writer/181434
ReplyDeleteपहले नारी स्वयं निश्चय करे कि उसे क्या करना है,प्रयत्न करने होंगे लेकिन आगे बढ़ना स्वयं ही होगा .
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