Saturday 20 July 2013

जीत

धुन्ध कुछ इतनी थी ,
राह न सूझती थी ।
अक्स तक न दिखता था ,
सब्र टूटता सा लगता था ।
उम्मीदों के घरौंदे ,
भरभरा कर गिरते ।
अशक्त मन प्राण ,
ढूंढ रहे थे कोई किनारा ।
 अचानक एक दिन ,
उड़ता हुआ परिंदा देख ।
शक्ति का संचार हुआ ,
उड़ते रहने का संदेश देता ,
चुपचाप वो  उड्ता  जाता ,
जीत इसी मे है छिपी ,
मूक संदेश वो  देता जाता ।
नूतन मन के साथ  उठो ,
जीत इसी मे है छिपी 

1 comment:

  1. koi bhi baat, kabhi bhi apne andar utsaah bhar deti hai... :) :)
    manbhavan rachna.. :)

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