धुन्ध कुछ इतनी थी ,
राह न सूझती थी ।
अक्स तक न दिखता था ,
सब्र टूटता सा लगता था ।
उम्मीदों के घरौंदे ,
भरभरा कर गिरते ।
अशक्त मन प्राण ,
ढूंढ रहे थे कोई किनारा ।
अचानक एक दिन ,
उड़ता हुआ परिंदा देख ।
शक्ति का संचार हुआ ,
उड़ते रहने का संदेश देता ,
चुपचाप वो उड्ता जाता ,
जीत इसी मे है छिपी ,
मूक संदेश वो देता जाता ।
नूतन मन के साथ उठो ,
जीत इसी मे है छिपी ।
koi bhi baat, kabhi bhi apne andar utsaah bhar deti hai... :) :)
ReplyDeletemanbhavan rachna.. :)