“प्रिय तुम ही”
सूरज की रश्मियों मे ,
चमक बन के रहते हो ।
जाग्रत करते सुप्त मन प्राण ,
सुवर्ण सा दमके तन मन ।
चन्द्रमा की शीतलता मे ,
धवल मद्धम चाँदनी से तुम,
अमलिन मुख प्रशांत हो ।
सागर से गहरे हो तुम ,
कितना कुछ समा लेते हो ।
नूतन पथ के साथी ,
जीवन तरंगो के स्वामी ।
मन हिंडोल के बीच ,
सिर्फ तुम किलोल कालिंदी । .
सुनो प्रिय तुम ही ,
तुम ही .....प्रिय तुम ही ।
सर्मपण और स्नेह से भरपूर रचना !
ReplyDeleteसाधू-साधू
ReplyDeleteअतिसुन्दर
आपकी रचना कल बुधवार [17-07-2013] को
ReplyDeleteब्लॉग प्रसारण पर
हम पधारे आप भी पधारें |
सादर
सरिता भाटिया
आहा अति सुन्दर.
ReplyDeletesundar shabd chayan
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeletebahut sunder
ReplyDeleteBekhar
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