कानपुर का चमड़ा
उद्योग
कानपुर में चमड़ा
उद्योग 1778 से शुरू होता है जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस क्षेत्र में अपनी शुरुआत
की थी। पहले वे पास के
मुफस्सिल शहर बिलग्राम में तैनात थे, लेकिन अवध के नवाब की अनुमति से उन्हें कानपुर में अपनी छावनी स्थापित करने की अनुमति
दी गई थी। उन्होंने अपने घोड़ों और अन्य चमड़े के उत्पादों के लिए काठी बनाने में स्थानीय
कारीगरों मुख्य रूप से दलितों को विकसित किया। उन सभी को कारीगरों द्वारा हाथ से
बनाया गया था।
1798 तक, ईस्ट इंडिया कंपनी का कानपुर पर पूर्ण नियंत्रण
हो गया और असंगठित क्षेत्र में व्यापार फला-फूला। चमड़े की मुख्य उत्पादों
में से एक था मश्क़ (जानवरों की खाल से बना चमड़े का थैला जिसका इस्तेमाल पानी
ढोने के लिए किया जाता था)।
इस मश्क से चमड़े की टैनिंग की कला का विकास हुआ। शुरुआत में जानवरों की खाल को
बबूल के पेड़ की छाल से
संसाधित किया जाता था जो बहुतायत में उपलब्ध थी। 1840 में, कानपुर में बनी काठी को एक मेले में इंग्लैंड भेजा
गया था जहाँ इसे सभी ने पसंद किया और इस तरह कला को बढ़ावा दिया।
1857 में,
विद्रोह के बाद बागडोर महारानी विक्टोरिया के
नाम पर चली गई। अब व्यापार तेजी से बढ़ रहा था और 1859 में कर्नल जॉन
स्टीवर्ट द्वारा पहली सरकारी हार्नेस एंड सैडलरी फैक्ट्री की स्थापना की गई थी।
जल्द ही कूपर एलन एंड कंपनी जैसी कई अन्य फैक्ट्रियां भी सामने आ गईं।
हालाँकि, किसी भी भारतीय को अपना
चमड़ा कारखाना स्थापित
करने की अनुमति नहीं थी। चमड़े का पहला कारखाना 1902 में जाजमऊ में स्थापित हुआ और इसके बाद कई और
कारखाने लगे। शुरुआत में ये सभी मुसलमानों के स्वामित्व में थे।
गैर-मुसलमानों ने
कपड़ा, जूट, आटा चक्की आदि जैसे अन्य व्यवसायों को
प्राथमिकता दी। शहर के तेजी से औद्योगीकरण ने कानपुर को पूर्व के मैनचेस्टर का
खिताब दिलाया।
“1947 में जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब चमड़े के 13 कारखाने थे। 1992 में उनकी संख्या 175 थी जो
जल्द ही बढ़कर 402 हो गयी।
समस्या और इसका
प्रभाव:
लेकिन इस चमड़ा उद्योग के लाभ बहुत थे लेकिन इसका एक
नकारात्मक पहलू भी था वो ये कि कारखानों को गंगा के किनारे पर ही बसाया गया था
ताकि कच्चे माल के आयात और तैयार माल के निर्यात में सहायता मिल सके और इन
कारखानों का गंदा कचरा भी गंगा में बहाया जा सके । और ये कारखाने ऐसा ही कर रहे थे
। जिससे गंगा काफी मैली और गंगा का जल काफी प्रदूषित हो गया था , गंगा
के अंदर के जीव भी मरने लगे थे । और गंगा पुल के ऊपर से गुजरते समय इतनी बदबू आती
थी कि वहाँ से निकलना और खड़े होना भी मुश्किल हो जाता था, इन
कारखानों के कारण वायु प्रदूषण भी बहुत ज्यादा हो रहा था । जिससे आस-पास रहने
वालों को अस्थमा की बीमारी भी होने लगी थी । नमामि गंगे परियोजना के अंतर्गत गंगा
सफाई अभियान को देखते हुये सर्वप्रथम गंगा को प्रदूषण मुक्त करना जरूरी था अतः एक सरकारी आदेश के कारण कानपुर में लगभग 250
चमड़े के टेनरियों को बंद कर दिया गया। यह बंद 2019 तक चलना था। ताकि कुंभ-2019 के दौरान श्रद्धालु प्रयागराज में पवित्र डुबकी लगा सकें ।
पहले माना जा रहा
था कि कुंभ के बाद चर्म शोधन कारखानों को काम करने दिया जाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। टेनरी
मालिकों का मानना है कि अब कानपुर में अपना कारोबार चलाना संभव नहीं रह गया है। वे
अपनी इकाइयों को
पश्चिम बंगाल में स्थानांतरित करने पर विचार कर रहे हैं जहां यह बताया गया है कि
सरकार ने चमड़ा इकाइयों के लिए अनुकूल नीतियां अपनाई हैं।
एक अनुमान के
मुताबिक बंदी के कारण उद्योग को करीब 3000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. कानपुर
से लगभग 6000 करोड़
का चमड़ा निर्यात होता है। नए ऑर्डर नहीं आ रहे हैं और पुराने ऑर्डर पूरे नहीं हो
रहे हैं। हालात यह हो गए हैं कि उद्योगपति हांगकांग चमड़ा मेले में चमड़े
के नमूने भेजने में नाकाम रहे हैं। कानपुर का कुल चमड़ा कारोबार सालाना करीब
12000 करोड़ रुपये का है।
इकाइयां अब
अस्तित्व के संकट का सामना कर रही हैं। रिपोर्टों के अनुसार कानपुर के जाजमऊ इलाके
में कई टेनरियों में
कच्ची खाल का भंडार था। चूंकि, वे उन्हें शोधित करने में असमर्थ हैं, इसलिए उन्नाव में काम कर रही इकाइयों को आधे
मूल्य पर बेचा जा रहा है। यहां तक कि इन टेनरियों में लगे ड्रमों की कीमत भी 20
लाख से 10 लाख के बीच है।
इन ड्रमों को घुमाने और पानी से भरने की जरूरत है। इन ड्रमों का उपयोग न करने से
भविष्य में ये खराब हो सकते हैं। इनमें से कई ड्रम दूसरे देशों से आयात
किए जाते हैं।
अधिकांश चर्म
शोधनशालाओं ने बैंक से ऋण लिया है और भुगतान न करने के कारण यह गैर-निष्पादित
संपत्ति बन गई है। बैंक भी अब अपना बकाया वसूलने के लिए बची हुई खाल को नीलाम करने की
प्रक्रिया में हैं। एक व्यापारी ने बताया कि अकेले जाजमऊ के चर्म शोधन कारखानों से
पांच लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है। अधिकांश मजदूर दूसरे राज्यों में चले गए
हैं क्योंकि उनके लिए अपने
खर्चों का प्रबंधन करना कठिन था।
1000 करोड़ रुपये का विदेशी व्यापार प्रभावित
हुआ है। ग्रीस, इटली, जापान और अमेरिका
के कई खरीदारों ने अपने ऑर्डर रद्द कर दिए हैं।
टेनरी मालिकों ने
कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया। इससे
पहले सरकार ने करीब 225 टेनरियों के
बिजली कनेक्शन काटने के आदेश जारी किए थे । ऐसा उनके पूर्ण बंद को
सुनिश्चित करने के लिए किया जा रहा था।
टेनरी मालिकों ने
इस आदेश का विरोध किया और राष्ट्रीय
राजमार्ग को जाम कर दिया। कई घंटे तक धरना-प्रदर्शन जारी रहा। प्रदर्शनकारियों के
पथराव के बीच पुलिस को हल्का लाठीचार्ज भी करना पड़ा
था । टेनरी मालिकों ने दावा
किया कि टेनरी कंपाउंड के अंदर कई परिवार भी रहते हैं। रमजान के महीने में बिजली
कटने से उनके लिए मुश्किलें बढ़ेंगी।
चर्मकारों का कहना था कि पहले की प्रथा के अनुसार वे खुद कुंभ में प्रत्येक शाही
स्नान से तीन दिन पहले अपनी इकाइयां बंद कर देते थे क्योंकि गंगा के जल को कानपुर से इलाहाबाद तक पहुंचने में तीन दिन
लगते हैं।
वर्तमान स्थिति :
कोर्ट के फैसले के बाद सख्त क़ानूनों व नियमों के साथ सभी
टेनरियों को खोल दिया गया कि वे अपने कारखानों में सभी जगह कैमरा लगवाएँ और फ्लो
मीटर लगवाएँ ताकि जल शोधक सयंत्र में जाने वाले गंदे पानी की अधिकता से सयंत्र
खराब न होने पाएँ और गंगा भी प्रदूषण से बचाई जा सके ।
हितधारक:
मोटे तौर पर इस
संकट में तीन प्रमुख हितधारक थे। पहले उद्योगपति
फिर यूपी जल निगम और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल। सबसे बड़ा मुद्दा गंगा नदी को प्रदूषित करने का
है। एक चर्मशोधन गृह के मालिक ने दावा किया कि क्षेत्र की सभी चर्म शोधनशालाओं
में प्रतिदिन केवल 9 मिलियन लीटर पानी (एमएलडी) छोड़ा जाता है। टेनरी के इस पानी को पहले
यूनिट द्वारा ही ट्रीट किया जाता है और फिर वाजिदपुर में कॉमन एफ्लुएंट ट्रीटमेंट
प्लांट (CTEP) में कन्वेयंस चैनल
में डिस्चार्ज किया जाता है। उचित उपचार के बाद, इसे सिंचाई चैनल या गंगा में छोड़ दिया जाता है। इस CTEP को चर्मकार और यूपी जल निगम के संयुक्त उद्यम
के रूप में स्थापित किया गया है। चर्मकार अपने
पानी के उपचार के
लिए मासिक प्रसंस्करण शुल्क भी देते हैं। इस प्लांट को चलाने का जिम्मा यूपी जल
निगम के पास है। सीटीईपी
की क्षमता 36 एमएलडी है।
चर्मकार का दावा
है कि जब वे इतना पानी नहीं छोड़ते तो यह सीटीईपी कहां से भर रहा है। उनका दावा है
कि यह घरेलू चैनल और
अन्य औद्योगिक इकाइयों का अन्य अपशिष्ट जल है लेकिन केवल चर्म शोधन कारखानों को निशाना बनाया जा
रहा है।
राजनीतिक प्रभाव:
चमड़ा उद्योग ने
2014 से संकट का सामना करना शुरू कर दिया है। कानपुर में कच्ची खाल का बाजार पेच
बाग अब वीरान नजर आता
है। 2015 में हाईड मर्चेंट्स एसोसिएशन के उपाध्यक्ष अब्दुल हक ने दीवार पर लिखी
इबारत पढ़ी थी। उनके दादा ने
पेच बाग में 1888 में कच्ची खाल का कारोबार शुरू किया था। केंद्र में बीजेपी सरकार
के एक साल के भीतर हक ने तब
दावा किया था कि जल्द ही पेच बाग हाईड मार्केट खत्म हो जाएगा.
आशंका सच हो रही
है। आधी दुकानों को रेडीमेड गारमेंट्स की दुकानों में तब्दील कर दिया गया है।
एसोसिएशन के लगभग 500 सदस्यों
में से आधे ने व्यापार छोड़ दिया है। शेष बेकार बैठे हैं। एक हफ्ते में मुश्किल से
एक ट्रक लदा खाल आती है।
कीमतें 15 लाख रुपये प्रति ट्रक से गिरकर 7 लाख रुपये प्रति ट्रक हो गई हैं।
चमड़े के कारोबार
में शामिल ज्यादातर व्यापारी मुस्लिम हैं जबकि मजदूर दलित हैं। जमाल ने कहा,
यह शुरुआत से ही था क्योंकि केवल इन
दो समुदायों को जानवरों की खाल से निपटने में कोई झिझक नहीं थी, जबकि अन्य
समुदायों में
धार्मिक मान्यताएं थीं। दोनों वर्ग समान रूप से प्रभावित हैं। उन्होंने कहा बीजेपी अच्छी तरह
समझती है कि ये दोनों
वर्ग उन्हें वोट नहीं दे रहे हैं। इसलिए इस व्यापार को खत्म करने की कवायद चल रही
है। कानपुर निवासी समाजवादी
पार्टी के राज्य स्तरीय पदाधिकारी डॉ. इमरान इदरीस ने कहा, गंगा और जानवरों की खाल पर बोगी लगाने से उनकी छवि
और बढ़ेगी।
इसका असर सिर्फ
कानपुर के बाजारों में ही नहीं बल्कि दूर-दराज के गांवों में भी महसूस किया जा रहा
है।
प्रेषिका
डॉ अन्नपूर्णा बाजपेयी
मो0-8299807829
चकेरी ,कानपुर