Wednesday 24 July 2013

संस्कार की श्रंखला मे - अतिथि संस्कार

यूं तो संस्कारों का अपना अलग महत्त्व है कहा भी गया है -" बिनु संस्कार जीवन खरवत"  । जिस भी व्यक्ति मे संस्कार नहीं होते उसे जाहिल और गंवार की संज्ञा दी जाती है इसलिए बिना संस्कार जीवन व्यर्थ है । अतिथि संस्कार भी  इसी का एक रूप है ।
आज कल हम देखते है कि अतिथि भी स्वेच्छा पर निर्भर करते है , अपनी इच्छानुसार जिसे हम चाहते है या पसंद करते है उसी को अपना अतिथि बनाना भी पसंद करते हैं । मन माफिक अतिथि से खुश रहते है और जो मन माफिक नहीं है उसके साथ कई बार दुर्व्यवहार भी कर बैठते है । बिना ये सोचे कि हमारे अतिथियों को हमारे व्यवहार से कितना दुःख हुआ होगा, कितना कष्ट हुआ होगा। 

एक समय था जब अतिथियों को भगवान की संज्ञा दी जाती थी , और अतिथि भी अपने आतिथ्यक का सम्मान करता था । आजकल तो मंहगाई के दौर मे लोग अपने खर्चे बचाने के चक्कर मे न किसी अतिथि का आगमन पसंद करते है और न ही कहीं जाना भी पसंद करते हैं ।  

महाभारत मे अतिथिसत्कार का एक अत्यंत सुंदर उदाहरण प्रस्तुत है जिसमे एक कबूतर ने अतिथि के भोजन के लिए अपने प्राणों की आहुति तक दे दी - 

जिस जंगल मे कबूतर का जोड़ा रहता था उसी मे एक बहेलिया भी रहता था वह पक्षियों को मार कर अपना जीवन यापन करता था इसलिए उसके मित्रों सगे संबंधियों ने उसका परित्याग कर दिया था। एक दिन वह उसी जंगल मे घूम रहा था कि अचानक तेज़ आंधी व बारिश होने लगी । जिसके कारण सभी पशु पक्षी भी व्याकुल होने लगे । एक कबूतरी बारिश से बेहाल होकर भूमि पर गिर पड़ी । बहेलिये ने उसे उठा कर अपने पिंजरे मे डाल लिया। और आगे बढ़ चला , ठंड से काँपता हुआ बहेलिया उसी वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गया जिस पेड़ पर कबूतर का जोड़ा रहता था । कबूतर अपनी कबूतरी के इंतजार मे दुःखी होकर विलाप कर रहा था उसका करूण विलाप सुन कर कबूतरी ने अपने कबूतर से कहा कि - आप मेरी चिंता  न करें, अपने घर के द्वार पर आए इस ठंड से बेहाल अभ्यागत  की  रक्षा का उपक्रम करें । इतना सुनकर कबूतर पेड़ से नीचे उतरा और उस बहेलिये से कहा- आप हमारे अतिथि है बताएं आपकी  क्या सेवा करूँ ? बहेलिये ने कहा - मुझे ज़ोर की ठंड लग रही है कुछ ठंड से बचने का उपाय हो जाय तो अच्छा है ।  इतना सुनकर कबूतर ने बड़ी मेहनत करके ढेर सारे सूखे पत्ते लाकर रख दिये और यथाशीघ्र लुहार के घर से अग्नि लाकर पत्तों मे अग्नि भी प्रज्ज्वलित कर दी । शरीर मे अग्नि का ताप लगने से उसकी ठंड जाती रही । अब उसे भूख लगने लगी उसने कबूतर से कहा -  कुछ भोजन  की भी व्यवस्था हो जाए तो अच्छा है, मुझे बड़ी भूख सता रही है । कुछ देर कबूतर सोचता रहा और उदास हो गया उसने सोचा कि भोजन की व्यवस्था कहाँ से करूँ , कि अचानक उसने कहा - हे अतिथि! मुझे ग्रहण करने की कृपा करें और उसने सूखे पत्ते फिर जलाए अग्नि की परिक्रमा कर उस अग्नि मे कूद गया । कबूतर के इस महान अतिथि सत्कार को देख कर उस बहेलिये के मन मे खुद के प्रति घृणा उत्पन्न हो आई उसने उसी समय पक्षियों की हत्या न करने का निन्दित कार्य छोड़ दिया । और उस कबूतरी को भी स्वतंत्र कर दिया , कबूतरी ने कहा जब मेरे स्वामी ने इस संसार का त्याग कर दिया है तो मै उनके बिना कैसी ? और वह भी उसी अग्नि मे कूद गई दोनों के आतिथ्य को देखकर वह करुण विलाप करने लगा - आह ! मुझ अधम से तो ये पक्षी अच्छे है जो संस्कारों को जानते समझते हैं और उनका अनुपालन भी करते हैं ।
आज  भी हममे से किसी मनुष्य को कोई कष्ट होता है तो हमारे साथ रहने वाले निरीह पशु पक्षी पहले रोते है क्योकि अभी निर्दयता उनमे नहीं पहुंची है । 
आशान्वित हूँ कि हम मनुष्य इन बेजुबान जीवों से कुछ सीख पाएंगे । 

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